Monday, November 11, 2019

रंग-बिरंगी कारीगरी के रंग कितने झूठे कितने सच्चे !!!

चीनी मिटटी के बर्तन, पारम्परिक हस्त-कलाओं से सजे परिधान, अनूठी चित्रकलाएँ, लकड़ी, मिटटी, कपड़े और जूट से बने गहने-खिलौने, आकर्षक मूर्तियाँ और रंग-बिरंगे कपड़े पहने, पारम्परिक वाद्य बजाते, लोकगीत गाते-नाचते कलाकार और हाँ पारम्परिक स्वादिष्ट व्यंजन भी। अमूमन हर दस्तकारी, शिल्प या हाट बाज़ार का यही दृश्य होता है।
 

आजकल इन बाज़ारों में रौनक़ भी ख़ूब रहती है। कभी भी किसी भी वक़्त चले जाइए वहाँ हमेशा भीड़ नज़र आएगी। हाँलाकि आजकल बच्चों को मॉल ज़्यादा भाता है फिर भी दोस्तों या माता-पिता के साथ वो यहाँ नज़र आ जाते हैं। ऐसे बाज़ारों में ख़ासकर एलीट क्लास, बुद्धिजीवी, कलाकार और क्रिएटिव लोगों के साथ-साथ हाई सोसाइटी में बिज़नेस करने वाली महिलाएं चाहे वो इंटीरियर डिज़ाइनर हों या फैशन डिज़ाइनर या मेक-ओवर आर्टिस्ट आप यहाँ किसी से भी टकरा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि मिडिल या लोअर क्लास वाले लोग यहाँ नहीं आते, आते हैं पर इन बाज़ारों में चीज़ें इतनी महँगी होती हैं कि हमारी क्लास के ज़्यादातर लोग दाम सुनकर ही चुप लगा जाते हैं। कुछ लोग तो एक बार किसी चीज़ का प्राइस जानने के बाद दूसरी बार पूछने की हिम्मत भी नहीं कर पाते, कुछ लोग थोड़े ढीठ होते हैं और मोल-भाव करने की कोशिश कर बैठते हैं पर उनकी ये कोशिश आमतौर पर तब तक कामयाब नहीं होती जब तक कि उस बाज़ार का आख़िरी दिन न हो। शायद मेरी इस बात से बहुत से लोग सहमत होंगे कि ऐसे बाज़ारों में सामान वाक़ई कई गुना महँगा होता है, वही चीज़ आपको किसी लोकल मार्किट में बहुत सस्ती मिल सकती है। हाँ ये कह सकते हैं कि हाट बाज़ारों में देश भर की पारम्परिक कलाएँ एक ही छत के नीचे मिल जाती हैं, आपको ढूँढना नहीं पड़ता और कई तरह की नई वैराइटी आपको ऐसे ही बाज़ारों में मिलेगी लोकल मार्किट में नहीं।


पिछले महीने अक्टूबर में इंडिया गेट पर सरस आजीविका मेले का आयोजन किया गया। वहां किसी भी स्वयं सेवी संस्था से किसी भी तरह का कोई शुल्क नहीं लिया गया। स्टॉल फ़्री, सामान लाने ले जाने का ख़र्च फ़्री। उस पर प्रत्येक ग्रुप से आए दो सदस्यों के रहने, खाने-पीने के लिए प्रतिदिन और प्रति सदस्य के हिसाब से 700 रुपए दिए जाना तय किया गया। बावजूद इसके सामान सस्ता नहीं कहा जा सकता था। इससे पहले इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र में लगे दस्तकारी हाट में सामान की क़ीमतें आसमान तो क्या गैलेक्सी को छू रही थीं। फिर भी लोग कई बार ये सोच कर सामान ख़रीद लेते हैं कि कोई कलाकार इतनी दूर से आया है उसने इतनी मेहनत से बनाया है तो एक बार ख़रीदा जा सकता है। एक नज़र में ये सही भी लगता है कि ये सभी हस्तकलाएँ हैं जो बहुत मेहनत से तैयार की जाती हैं तो इन लोक कलाकारों को उनका due तो मिलना ही चाहिए। पर यहाँ सवाल उठता है कि क्या ये सभी कलाकार जेनुइन और ज़रुरतमंद हैं ??!! और जो वाक़ई हैं क्या सचमुच उन्हें उनका due मिलता है !!!! ये दोनों सवाल विरोधभासी नज़र आते हैं लेकिन गौर करें तो स्थिति शीशे की तरह साफ़ नज़र आ जाएगी। ये भी सोचने वाली बात है कि दिल्ली हाट समेत सभी क्राफ़्ट बाज़ारों में वही गिने-चुने लोग कैसे और क्यों आ जाते हैं? यानी सबको फेयर चांस नहीं मिलता है, या फिर जो पैसा ख़र्च कर सकता है वही इन बाज़ारों से फ़ायदा उठाता है और उसका कलाकार होना ज़रूरी नहीं है..... हो सकता है वो कलाकारों और बाज़ार को जोड़ने वाली कड़ी हो!!

दिल्ली के ब्लाइंड स्कूल में हर साल दिवाली मेला लगता है। वहाँ बहुत से बाहर के ग्रुप अपना स्टॉल लगाते हैं और एक स्टॉल का 7 दिन का किराया क़रीब एक लाख रुपए होता है। इतना महँगा होने के बावजूद वहाँ स्टॉल बुक कराने के लिए लोग हर जुगत लगाते हैं क्योंकि उससे चौगुनी रक़म उन्हें वापस मिल जाती है। लेकिन ये लाभ आख़िर जाता कहाँ है !!!???  उस सामान को अपनी मेहनत और टैलेंट से बनाने-सँवारने वाले कारीगरों के पास या उस ग्रुप को चलाने वालों की जेबों में ? एक ऐसे ग्रुप को मैं निजी तौर पर जानती हूँ जहाँ तक़रीबन 150 से ज़्यादा लोग काम करते हैं, जिनमें क़रीब 80 महिला आर्टिस्ट हैं। इनमें से ज़्यादातर औरतें निम्न आय वर्ग से आती हैं, कुछ तो बहुत ही मजबूर होती हैं। कम से कम तनख़्वाह में ज़्यादा से ज़्यादा काम लेकर उनकी मजबूरी का भरपूर फ़ायदा उठाया जाता है। ये ग्रुप जो आर्टिस्ट चलाती हैं वो राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हैं और सरकार द्वारा उनकी संस्था को कई तरह की सुविधाएँ दी जाती हैं मगर उनका लाभ वहाँ काम करने वाले कलाकारों को नहीं मिलता। उस ग्रुप के हर कलाकार को सरकार द्वारा एक आर्टिस्ट कार्ड जारी किया गया है, लेकिन शायद ही किसी आर्टिस्ट ने वो कार्ड देखा हो। उस कार्ड के ज़रिए जो भी फ़ायदे आर्टिस्ट को मिलने चाहिए वो किसी और को मिल रहे हैं। यहाँ तक कि जिन हालात में आर्टिस्ट काम करते हैं वो भी संतोषजनक नहीं है। उमस भरी गर्मियों में भी एक कमरे में एक कूलर में २०-२5 लोग बैठ कर काम करते हैं। तनख़्वाह जिस प्रतिशत में बढ़नी चाहिए कभी नहीं बढ़ती, बल्कि जो भी अधिकारों की माँग करता है उसे काम से निकाल दिया जाता है। क्योंकि अपने देश में न तो बेरोज़गारों की कमी है न ही मजबूर लोगों की। ऐसे लोगों से कम से कम तनख़्वाह पर काम कराया जा सकता है। ये अकेली ऐसी संस्था नहीं है, ऐसे न जाने कितने ग्रुप्स हैं जो पिछले 15-20 सालों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। मगर न तो किसी अख़बार को या टीवी चैनल को उनमें रूचि है न ही सरकार को। सरकार का कर्तव्य तो सुविधायें देकर ख़त्म हो गया, ये जानने की क्या ज़रुरत है कि उन सुविधाओं का लाभ सही व्यक्ति को मिल भी रहा है या नहीं !!! या कहें कि रंग-बिरंगी कलाकारी का ये पहलू किसी को दिखाई ही नहीं देता। जो दिखता है या दिखाया जाता है वो उतना ही अधूरा और झूठा है जैसे चाँद देखने के बाद रात के अँधकार को नकार दिया जाए।