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Friday, January 7, 2022

पुरानी दिल्ली की हवेलियों की बनावट

पहले ये कहा जाता था कि बेवक़ूफ़ लोग घर बनाते हैं और समझदार उनमें रहते हैं। आजकल का सच ये है कि जिनके पास दौलत है वो लोग घर बनाते हैं बेचते हैं और जो वो दौलत कमाने की क्षमता रखते हैं वो घर ख़रीदते हैं और उनमें रहने वाले ज़्यादातर लोग वो होते हैं जो अपने घर के सपने को पूरा करने के लिए सालों तक चलने वाले क़र्ज़ में डूब जाते हैं। लेकिन इस सच्चाई को तो कोई नहीं नकार सकता कि अपना घर बनाना हर इंसान का सबसे बड़ा ख़्वाब होता है और दिल्ली में घर हो तो आप अचानक बहुत इज़्ज़तदार हो जाते हैं। असलियत आपको ही पता होती है कि आपने क्या-क्या पापड़ बेले, कैसी-कैसी नसीहतें सुनी और घर बनाते हुए क्या-क्या ग़लतियाँ कीं। क्योंकि सिर्फ़ घर बनाना ही काफ़ी नहीं होता वो मज़बूत और सुरक्षित भी होने चाहिए। 

अभी कुछ दिन पहले एक वीडियो देखा जिसमें बर्मिंघम में घर बनने के प्रोसेस को दिखाया था, क्या मटीरियल इस्तेमाल किया जाता है और स्ट्रक्चर कैसा होता है। उस वीडियो को देखकर मुझे बहुत हैरानी हुई क्योंकि जो हमारे पुराने तरीक़े थे और जिन्हें हम छोड़ चुके हैं, उन्हीं के इस्तेमाल से बाहर के देशों में एक मज़बूत घर बनाया जा रहा है। (पता नहीं शुरु से वही तरीक़ा इस्तेमाल किया जाता रहा है या ये वहाँ की मॉडर्न टेक्नोलॉजी है )

पुरानी दिल्ली की हवेलियों को अगर आपने उनके पुराने स्वरुप में देखा हो तो आपको पता होगा कि उन हवेलियों में लेंटर नहीं होता था बल्कि छत बनाने के लिए कड़ियों और पटिया का इस्तेमाल किया जाता था। वहाँ क़रीब एक-डेढ़ दशक पहले जब तक तक फ़्लैट्स बनने शुरू नहीं हुए थे यही चलन था। और पुरानी दिल्ली वाले कॉलोनी में रहने वालों को हमेशा यही सलाह देते थे कि कड़ियों वाली छत डलवाओ, पटिया डलवाओ, वो ज़्यादा मज़बूत होती है। मगर उन पुरानी हवेलियों में बरसात के दिनों में कभी-कभार छत से पानी टपकने लगता था इसीलिए लोग उस सलाह को नज़अंदाज़ कर देते थे। कड़ियाँ घर की ख़ूबसूरती में दाग़ की तरह लगती थीं इसीलिए हमारी कॉलोनियों में लेंटर वाली छत पड़ती है, जिसमें POP चार चाँद लगा देता है। आजकल तो छतों के इतने डिज़ाइन आ गए हैं कि जिसके पास जितना पैसा हो वो उतनी ख़ूबसूरत छत बनवा सकता है। जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा पर डालने के लिए गुड़ होना भी तो चाहिए।  

खैर ! बर्मिंघम के घर की बात करते हैं वहाँ छत कड़ियों और टाइलों पर ही टिकी होती है जिन्हें फोम और ऐक्रेलिक शीट की लेयर्स से कवर किया जाता है और इस तरह वो छत न तो चूती है न ही जल्दी गर्म होती है। और उतनी ही ख़ूबसूरत दिखती है जितनी कोई लेंटर वाली छत। 

अपने यहाँ पुरानी कॉलोनियों में चले जाएँ तो जो बहुत पुराने घर बने हुए हैं या जिन्हें ठीक से नहीं बनाया गया है,  उनके फ़र्श तक में सीलन आ जाती है। बरसात के दिनों में फ़र्श में से सफ़ेद रुई जैसा कुछ निकलने लगता है, कभी कभी ज़्यादा बरसात में फ़र्श में से पानी भी आने लगता है। जहाँ फ़र्श मार्बल का हो वहाँ ये सीलन दीवारों में चली जाती है। बर्मिंघम में इसका इलाज है लेंटर, जो लेंटर हम छत पर डालते हैं उसी तरीके से वो फ़र्श बनाते हैं। मुझे आर्किटेक्चर के बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं है मगर इतना ज़रुर जानती हूँ वो तरीक़ा है बड़ा यूनिक, उससे न तो फ़र्श ठण्डा रहता है न ही ज़मीन से सीलन आती है। फर्श में पहले कॉन्क्रीट डाला जाता है, उसके बाद लोहे का जाल फिर कॉन्क्रीट और फ़ोम शीट के इस्तेमाल से एक नार्मल फर्श बनाया जाता है और ऊपर से कारपेट डाल दिया जाता है बस...... और सुना है कि वहाँ के मकान काफ़ी मज़बूत होते हैं, उन्हें बार-बार मरम्मत की ज़रुरत नहीं पड़ती। 

दिल्ली की पुराने ज़माने की बड़ी-बड़ी हवेलियों या स्मारकों को देखकर बहुत दफ़ा ये ख़याल आता है कि आख़िर उस ज़माने में जब न इतनी सहूलियतें थीं न ही मशीनरी और न ही तकनीक इतनी उन्नत थी तो कैसे उन लोगों ने इतनी ऊंची और मज़बूत इमारतें बनाई होंगी। और दिल्ली ही क्यों आप पूरे देश में देख लें......  क्या हवा महल जैसी मिसाल दुनिया में कहीं मिलेगी ? जो राजस्थान की तपती गर्मी में बिना पंखे और AC के ठंडक पहुंचाती है !!  इसी तरह दिल्ली की हवेलियों की बनावट है, वहाँ गर्मी में ठंडक रहती है और सर्दियों में हवेलियों के अंदर बाहर की शीत लहर का एहसास भी नहीं होता। उनकी बनावट ऐसी है जो सिर्फ़ ठंडी हवाओं से ही नहीं बचाती बल्कि बाहर के शोर से भी बचाती हैं। यानी Noise Pollution जिसकी समस्या दिल्ली में दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और जिसे हम में से कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा। और एक चीज़ से बचाती हैं चोरी-चकारी से, आपने शायद ही कभी सुना हो कि पुरानी दिल्ली में चोरों ने किसी घर में सेंध लगाई हो क्योंकि वहाँ से चोरी करके भागना ही आसान नहीं है। हर गली किसी दूसरी गली में खुलती है और वो दूसरी गली किसी तीसरी में और अनजान इंसान उन गलियों में सिर्फ़ गोल-गोल घूमता रह जाएगा, वहाँ से बाहर नहीं निकल पाएगा। 

Saturday, January 16, 2021

पुरानी दिल्ली का कटरा नील

पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक में तो पुराना शाहजहाँनाबाद फिर से बनाने की कोशिश की जा रही है। पर मैं सोचती हूँ क्या उससे पुरानी दिल्ली की हालत सचमुच बदल जाएगी ??!! क्या वहाँ के गली, कूँचे, कटरे, हवेलियाँ सब की हालत सुधर जाएगी ??!! मुझे तो ऐसा नहीं लगता.........  आख़िर सत्ता बदल जाने से कभी आम जनता की हालत बदली है ! लेकिन जिस तरह पुरानी दिल्ली की कुछ हवेलियों को रेनोवेट करा के उन्हें पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है, उससे ऐसा ज़रुर लगता है कि एक दिन पुरानी दिल्ली का पूरा इलाक़ा सिर्फ़ दर्शनीय स्थल में बदल कर रह जाएगा और तब बाक़ी दिल्ली वाले उन्हें देखने जाया करेंगे। क्योंकि अभी तो आलम ये है कि वहाँ कोई घटना घट जाए, तो कोई बड़ा अख़बार भी तुरंत उसे कवर नहीं करता, न ही टीवी चैनल्स उसका कोई लाइव टेलीकास्ट करते हैं। हाँलाकि ये काफ़ी हैरत की बात है, पर भला हो सोशल मीडिया का और उन Youtubers का (जो शायद वहीं के रहने वाले होंगे) जिनकी वजह से लोगों तक वहॉं की ख़बर पहुँच जाती है। 

जिस दिन चाँदनी चौक के बीचों-बीच बना हनुमान मंदिर गिराया गया उसी के अगले दिन चांदनी चौक के कटरा नील में दर्जनों दुकानें जल गईं पर मैंने न तो किसी अख़बार में वो ख़बर पढ़ी, न ही टीवी पर वो न्यूज़ दिखाई गई। शायद इस तरह की ख़बरों से किसी को कोई फ़ायदा नहीं मिलता ! क्योंकि ये ख़बरें TRP नहीं बढ़ातीं।  

कटरा नील  जिसे वहाँ के आम लोग नील का कटरा कहते हैं, आज वहाँ लेडीज सूट और कुर्तियों की होलसेल मार्किट है। लेकिन एक ज़माने में वहाँ नील बनाया और बेचा जाता था इसीलिए इस का नाम पड़ा नील का कटरा। वहाँ की गली घंटेश्वर में प्राचीन घंटेश्वर मंदिर है जो वहाँ काफ़ी मशहूर है। एक ज़माने में यमुना नदी इसके आस-पास बहती थी तो वहाँ एक गली धोबियान भी हुआ करती थी, जहाँ धोबी रहा करते थे। इसी के पीछे है बाग़ दीवार, और सब्ज़ी मंडी के साथ-साथ खोया मंडी भी है। पहले तो दिल्ली के ज़्यादातर मिठाई वाले सुबह-सुबह यहीं से खोया ले जाते थे। अब तो दिल्ली में ज़्यादातर लोग मिठाई से परहेज़ रखते हैं, कुछ डाइबिटीज़ की वजह से तो कुछ डाइटिंग के कारण, खाते भी हैं तो ब्रांडेड शुगर-फ़्री वाली मिठाई। लेकिन सच कहूँ तो, वो जो पहले असली खोए को घर लाकर भूना जाता था, फिर उससे तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाई जाती थीं उनकी महक और स्वाद की बात ही कुछ और थी। 

Monday, January 4, 2021

इतिहास को दोहराना या एक और इतिहास को मिटाना !!??

चाँदनी चौक अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर रहा है। यहाँ जितने शौक़ से रामलीला की सवारी निकलती रही है उतनी ही श्रद्धा से  प्रभात फेरी भी निकलती है और ताज़िए भी। कोई और धार्मिक उत्सव हो यहाँ के लोग अक्सर मिल जुल कर मानते रहे हैं। इसकी सदभाव की मिसाल तो खुद वो लम्बी सड़क है जो लाल क़िले से सीधी फ़तेहपुरी जाती है। उस एक रोड पर ही जैन मंदिर से लेकर गौरीशंकर मंदिर फिर गुरुद्वारा, चर्च और आखिर में फ़तेहपुरी मस्जिद सभी धर्मों के आस्था स्थल मिल जाते हैं। लेकिन इनके अलावा भी बहुत से छोटे-बड़े मंदिर-मस्जिद इस पूरे इलाक़े में हैं, जिनकी सभी धर्मों के लोग इज़्ज़त करते हैं और किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं होती। 

चाँदनी चौक की इसी रोड पर घंटाघर की तरफ़ जाते हुए नटराज भल्ले वाले की दुकान से ज़रा सा आगे एक छोटा सा हनुमान मंदिर हुआ करता था। 


उस मंदिर को मैंने अपने बचपन से देखा था, मेरी माँ ने भी अपने बचपन से देखा था और मेरी नानी बताया करती थीं कि जब वो चांदनी चौक आईं थीं, तब से उन्होंने भी उस मंदिर को देखा था। इस तरह माने तो वो मंदिर क़रीब  सौ साल पुराना तो ज़रूर रहा होगा। इस मंदिर से जहाँ लोगों की आस्था जुड़ी थी वहीं बाहर से आने वालों के लिए वो एक लैंडमार्क भी था। "था" इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अब आप फिर कभी उस मंदिर को नहीं देख पाएंगे। कोर्ट के ऑर्डर से उस मंदिर को गिराने की क़वायद कल यानी 3 जनवरी 2021 को शुरु हो गई थी। कल वहाँ भारी मात्रा में पुलिस बल तैनात था और मोती बाज़ार के सामने वाली उस रोड तक पहुँचने के सभी रास्तों पर बेरिकेटिंग कर दी गई थी। 

कहा जा रहा है कि ये मंदिर शाहजहाँनाबाद प्रोजेक्ट में यानी चांदनी चौक के सौन्दर्यीकरण के काम में बाधा था। हाँलाकि उस मंदिर वाली जगह पर एक पुराना पीपल का पेड़ भी है जो कोर्ट के ही एक और आदेश के मुताबिक़ काटा नहीं जा सकता। बल्कि हर पेड़ के आसपास 7" x  7" का चबूतरा बनाया जाना लाज़मी है और लोगों को यही एतराज़ है की जब इतना बड़ा चबूतरा बनना ही है तो मंदिर को क्यों तोड़ा जा रहा है क्योंकि वो मंदिर भी लगभग इतना ही छोटा था। पर जनता के घोर विरोध के बावजूद वो प्राचीन मंदिर कल तोड़ दिया गया। 

गौरवशाली इतिहास की नक़्ल करने के लिए, उस अतीत दोहराने की नाकाम कोशिश में, अतीत की निशानियों को ढहा देने में कौन सी समझदारी है ये मेरी समझ में नहीं तो आता खासकर जब उनसे किसी की श्रद्धा भी जुड़ी हो। 

Saturday, December 26, 2020

कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर

आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और दरबार में शायर--ख़ास का दर्जा पाने वाले मशहूर शायर शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ ने कहा था - "कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर" - तब उन्हें कहाँ पता था कि एक दिन आएगा जब उनकी महबूब दिल्ली की तंग गलियां बे-रौनक़ हो जाएँगी। यहाँ बात पुरानी दिल्ली की हो रही है जिसकी साज-सजावट का काम काफ़ी अरसे से चल रहा है। सुना है कि इस बार गणतंत्र दिवस की परेड में उस नई सी दिखने वाली दिल्ली की झाँकी दिखाई जाएगी। जब आप उसे देखेंगे तो सचमुच आपका दिल ख़ुश हो जाएगा मगर हक़ीक़त आप तभी जान पाएंगे जब आप ख़ुद वहाँ गए हों। 


बीच में वहाँ की जो तसवीरें वायरल हुईं उन्हें देखने के कुछ दिनों के बाद मैं भी वहाँ गई मगर हालात पहले से ज़्यादा ख़राब नज़र आए। पान-गुटखे की जो पीक पहले आम सड़कों और दीवारों पर नज़र आती थी वो अब उन लाल पत्थरों के रंग में घुल-मिल गई है। चाट-पकौड़ी के दोने-पत्तलों का कूड़ा भी जगह जगह दिखा। भीड़ भी उतनी ही थी और रिक्शा चलाने वालों की लाइन भी। यूँ भी उस इलाक़े में बदलाव करना इतना आसान नहीं है, जितना इन तस्वीरों में नज़र आता है। इस Beautification की प्रक्रिया में उन लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं जो दूर-दराज़ से वहां ख़रीदारी करने जाते हैं। मुश्किलें तो वहाँ रहने वालों की भी बढ़ी हैं पर वो तो वहाँ के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ हैं तो गलियों-गलियों से निकल कर अपना रोज़मर्रा का सफ़र तय कर लेते हैं। या कहें कि उन्हें आदत है उस माहौल में जीने की क्योंकि उन्होंने वहीं आँखें खोलीं, बचपन से उन्हीं तंग गलियों से दोस्ती रही है, उन्हीं हवेलियों में गुज़र-बसर हुई है जहाँ "प्राइवेसी" नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। 

पुरानी दिल्ली में रहने वाले ज़्यादातर किरायेदार हैं, पर इतने पुराने कि जिस घर या हवेली के कमरे में वो रह रहे हैं उस पर अब उनका ही अधिकार है। ज़्यादातर के पुरखे यहाँ आए और फिर यहीं के हो गए, कुछेक ने तो उसी एक छोटे से कमरे में अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी। बाद में कुछ ने वही पुरानी हवेली या कमरा ख़रीद लिया और बदलती पीढ़ी के वो लोग जिन्हें उन तंग गन्दी गलियों में कोई फ्यूचर नज़र नहीं आया ( जो असल में है भी नहींउनमें से कुछ ने पुरानी दिल्ली से कहीं बाहर किसी कॉलोनी में कोई फ़्लैट ख़रीद लिया या मकान बनवा लिया। जो  यहाँ रह रहे हैं या तो मजबूरी में या इसलिए कि उन्हें उस जगह से प्यार है, वहां उनका जन्म हुआपढाई-लिखाई हुई, दोस्त बने और बिछड़े, तो एक लगाव होना लाज़मी हैएक इमोशनल अटैचमेंट। वैसे वहाँ रहने वाले पुराने किराएदारों में कुछेक लोग ऐसे भी हैं जो ब वहाँ रहते नहीं हैं लेकिन अपना क़ब्ज़ा भी नहीं छोड़ना चाहते। ताकि जब भी वो हवेली बिके तो उन्हें भी उस कमरे का शेयर मिले जो बाक़ी लोगों को मिलेगा।    

जो लोग पुरानी दिल्ली से निकल गए वो अब वहाँ रहने वालों को 'कुँए का मेढ़क' कहते हैं। मगर वहाँ रहने वालों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता हाँलाकि अब चांदनी चौक के इलाक़े में अंदर गलियों में भी पूरी मार्किट बन गई है, दुकानें हैं, गोदाम हैं और गंदगी भी बहुत बढ़ गई है। मकान भी काफ़ी पुराने और जर्जर हालत में हैं जो चूहों का परमानेंट ठिकाना बन गए हैं। फिर भी चोरी-चकारी के मामले में वो इलाक़ा आज भी दिल्ली के दूसरे इलाक़ों से ज़्यादा सुरक्षित है, वहाँ से हत्या और आत्महत्या जैसी ख़बरें भी नहीं आतीं। क्योंकि उन हवेलियों में इंसान कभी अकेला ही नहीं होता और सभी पुराने लोग हैं तो एक दूसरे का ख़्याल भी रखते हैं (कभी-कभी ज़बरदस्तीऔर एक दूसरे पर विश्वास भी करते हैं।

हर तरह का सामान दो क़दम की दूरी पर मिल  जाता है, रेलवे स्टेशन भी पास में है, बस अड्डा भी और मेट्रो भी। हॉस्पिटल से लेकर थोक की मार्किट और सबसे बढ़कर खाने-पीने की दुकानें-रेहड़ी जहाँ दिल्ली के बेहतरीन स्वादिष्ट व्यंजन मिलते है। एक ज़माने में चांदनी चौक और फ़तेहपुरी के बीच घंटाघर पर रात के डेढ़ दो बजे भी परांठे और चाय मिल जाती थी। अब तो पता नहीं मिलती है या नहीं .........  मगर हलवा-नगौरी का नाश्ता आज भी सुबह-सुबह मिल जाता है और 10 -15 साल पहले तक ये सिर्फ़ वहीं मिलता था वो भी सिर्फ़ 10 बजे तक, लेकिन बाद में दिल्ली के दूसरे इलाक़ों में भी इस नाश्ते की ख़ुशबू पहुँच गई। 


नटराज के दही-भल्ले, ज्ञानी का फालूदा, दौलत की चाट, लोटन के चटपटे छोले और पराँठे वाली गली के पराँठे.... इस तरह की मशहूर चीज़ों के लिए आज भी लोग वहाँ जाते हैं। हाँलाकि अब वो क्वालिटी नहीं मिलती ही पहले वाला माहौल है और जिस तरह से हालात बदल रहे हैं अब लोग वहाँ से निकलने की बात सोचने लगे हैं। ख़ासकर नई पीढ़ी जो मल्टीनेशनल कम्पनीज़ में काम करती हैएक क्लिक पर जिसके सामने पूरी दुनिया खुल जाती है, जिसे बहुत ऊँचा उड़ना है। उनकी उस उड़ान के लिए, उनके विशाल पंखों के लिए ये आसमान जो पहले से बहुत तंग था दिन--दिन और तंग होता जा रहा है। 

Saturday, October 5, 2019

180 साल पुरानी सवारी

रामलीला के दिन आने पर मैं हमेशा Nostalgic महसूस करने लगती हूँ। आज भी याद है कि सवारी देखकर लौटते ही बाड़े में जाने की तैयारी शुरु हो जाती थी। खाना पैक करके, एक दो पुराने अख़बार, पानी का ग्लास, तश्तरी-चम्मच और हाथ के पंखे थैले में रख लिए जाते थे। मेरी नानी लगभग हर रोज़ शाम होते ही बाड़े में चलने की ऐसी ही तैयारी करती थीं। लीला का मंचन 7-8 बजे से पहले शुरु नहीं होता था पर हम 5 बजे तक वहाँ पहुँच जाते थे, ताकि ऐसी जगह बैठ सकें जहाँ से मंच के किरदारों के चेहरे और भाव-भंगिमाएँ बिलकुल साफ़-साफ़ दिखाई दें और एक-दो कुर्सियों पर क़ब्ज़ा भी जमा सकें। हाँलाकि घर से किसी को नहीं आना होता था, तीन प्राणी तो कुल थे, मैं तो उनके साथ ही जाती थी और मामाजी कभी सीट पर बैठकर रामलीला देखते नहीं थे। ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया जाता था कि कोई पास-पड़ोस का जानने वाला मिल जाए तो उसे कोई परेशानी न उठानी पड़े। और सिर्फ़ मेरी नानी नहीं उस समय ज़्यादातर लोग ऐसा ही करते थे। बाड़े में इस तरह जाने का सिलसिला तो बचपन में ही ख़त्म हो गया लेकिन साइकिल मार्किट से शुरु होने वाली सवारी हम बिला नागा देखने जाते थे। कभी चाँदनी चौक से, कभी दरीबा से तो कभी नई सड़क से वो सवारी हम देख ही लिया करते थे। बहुत मज़ा आता था शायद इसलिए कि उस समय हम बच्चे थे पर उस वक़्त बड़े भी उस सवारी का आनंद उतने ही मन से और जोश से खुलकर उठाया करते थे। आज के बड़ों जैसा सोफ़ेस्टीकेशन नहीं होता था न, तब खुलकर हर जज़्बात का इज़हार करने का रिवाज था, चाहे कितनी ही छोटी या कितनी भी बड़ी बात क्यों न हो।

कल अख़बार में पढ़ा कि इस बार सवारी का रास्ता ही बदल गया है क्योंकि चाँदनी चौक की सड़कें खुदी पड़ी हैं। 180 सालों से चली आ रही ये सवारी साइकिल मार्केट से शुरु होकर दरीबा कलाँ, चाँदनी चौक, नई सड़क, चावड़ी बाज़ार होते हुए बड़े बाड़े यानी रामलीला मैदान तक पहुँचती थी और रात में इसी रास्ते वापस आती थी। लोग अपने घर की छतों पर चढ़कर, दुकानों में बैठ कर या फिर सड़क किनारे खड़े होकर सवारी का आनंद उठाते रहे हैं। आज भी वहाँ दुकानदार अनजान बुज़ुर्गों को अपनी दुकान में बैठने को जगह दे देते हैं बिना इस डर के कि कहीं उनका सामान चोरी न हो जाए, ये देखकर वाक़ई अच्छा लगता है कि आज भी कहीं तो ये विश्वास बना हुआ है।

ये वो सवारी है जिसे देखने लोग दूर-दूर से आया करते हैं, ख़ासकर विदेशी पर्यटक तो  दीवाने रहे हैं। एक समय में इसकी काफ़ी सज-धज हुआ करती थी। सवारी निकलने से पहले मशक लेकर कुछ लोग सड़कों पर पानी का छिड़काव करते थे, सड़क के दोनों तरफ़ कीटनाशक का छिड़काव भी किया जाता था। फिर पुलिस वाले घोड़ों पर सवार होकर सवारी की शुरुआत और आख़िर में सुरक्षा करते हुए चलते थे। घोड़ों की टापों से ही सवारी के शुरु होने और ख़त्म होने का पता चल जाता था। एक पानी की प्याऊ भी निकलती थी जो राह चलते या देर से इंतज़ार में खड़े बच्चे-बड़े-बूढ़ों की प्यास बुझाती थी, तब वॉटर-बॉटल्स का चलन जो नहीं था ! इसके बाद दिखाई देते थे सजे-धजे हाथी, लोग ख़ुद या अपने बच्चों से उनकी सूंड में पैसे रखवाते थे, और वो प्रशिक्षित हाथी वही पैसे महावत को दे देते थे। ये खेल बच्चों को जहाँ डराता था वहीं रोमांचित भी करता था। इसके बाद शुरु होता था, झाँकियों का सिलसिला जो उस रोज़ मंच पर होने वाली लीला के मुताबिक़ निकलती थीं। हर डोले से पहले मशहूर बैंड कोई लोकप्रिय या उस दिन के मुताबिक़ उपयुक्त धुन बजाते हुए चलते थे। सबसे ज़्यादा मज़ा आता था रावण की एंट्री पर बड़ी-बड़ी मूछों वाले, ऊँचे-लम्बे क़द और भारी भरकम शरीर वाले रावण को देखते ही शोर मचना शुरु हो जाता था। वो भी अपनी बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखों से ऐसा डराते थे कि कुछ बच्चे तो सच में डर जाते थे। ऐसा ही शोर-शराबा होता था जब वानर सेना और राक्षसों के बीच सड़कों पर झूठ-मूट की लड़ाई होती थी। दरअस्ल सब एक दूसरे को जानने वाले गली-मोहल्ले के बच्चे ही होते थे जो ये पार्ट अदा किया करते थे, इसलिए सब मिलकर लुत्फ़ उठाते थे। इसी बीच अपने लोकल उत्पादों का प्रचार करने के लिए कम्पनियाँ रावण या दूसरे किरदारों से फ्री में अपने उत्पाद भी बँटवा दिया करती थीं।

अब न मशक रही, न प्याऊ, न घोड़े, न हाथी (शायद पशु-प्रेमी भी ख़ुश होंगे) ये सब चलन काफ़ी पहले ही ख़त्म हो गया था। अब तो बस बैंड-बाजे के साथ डोले यानी झाँकियाँ आती हैं। हाँ, आज भी इस सवारी में स्त्री और पुरुष दोनों का किरदार लड़के ही निभाते हैं, लेकिन पहचानना बेहद मुश्किल होता है कि जो सीता बनी है वो दरअस्ल "बना" है। इस बार सवारी देखने वालों का दायरा ज़रुर कम हुआ है पर  इस सवारी का चार्म कम नहीं हुआ। इसका जो मक़ाम था, वो आज भी है और तब तक क़ायम रहेगा जब तक इसे संचालित करने वालों और देखने वालों में जोश क़ायम है। सवारी से पहले और बाद में बड़े-बड़े मुखौटे, तीर-कमान, ग़ुब्बारे और कई तरह के नए-पुराने ज़माने के खिलौने लिए फेरी वाले, मसालेदार पापड़, आइसक्रीम और खाने-पीने की चीजें बेचने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती है। उस वक़्त बच्चे अपने माता पिता को धन्नासेठ समझ कर अपनी हर छोटी-बड़ी फ़रमाइश पूरी करने को लेकर अड़ जाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगते हैं। ये पहले भी होता था, आज भी होता है और हमेशा होगा। बस वक़्त के साथ-साथ बेचने वाले, ख़रीदने वाले और बिकने वाला सामान बदलता रहेगा।

जिन्होंने ये सवारी कभी नहीं देखी है उनसे मैं इतना कहूँगी कि एक बार तो ज़रुर देखिए। थोड़ी भीड़ तो होगी और कोई फ़िक्स टाइम भी नहीं है इसका पर शाम 4 से 6 के बीच अक्सर सवारी निकलती है और इस बार तो ज़्यादा लम्बा रुट भी नहीं है- जामा मस्जिद चावड़ी बाज़ार या हौज़काज़ी से देख सकते हैं। मेरा ख़्याल ज़िंदगी में एक बार तो इसे देखना बनता है।