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Saturday, October 5, 2019

180 साल पुरानी सवारी

रामलीला के दिन आने पर मैं हमेशा Nostalgic महसूस करने लगती हूँ। आज भी याद है कि सवारी देखकर लौटते ही बाड़े में जाने की तैयारी शुरु हो जाती थी। खाना पैक करके, एक दो पुराने अख़बार, पानी का ग्लास, तश्तरी-चम्मच और हाथ के पंखे थैले में रख लिए जाते थे। मेरी नानी लगभग हर रोज़ शाम होते ही बाड़े में चलने की ऐसी ही तैयारी करती थीं। लीला का मंचन 7-8 बजे से पहले शुरु नहीं होता था पर हम 5 बजे तक वहाँ पहुँच जाते थे, ताकि ऐसी जगह बैठ सकें जहाँ से मंच के किरदारों के चेहरे और भाव-भंगिमाएँ बिलकुल साफ़-साफ़ दिखाई दें और एक-दो कुर्सियों पर क़ब्ज़ा भी जमा सकें। हाँलाकि घर से किसी को नहीं आना होता था, तीन प्राणी तो कुल थे, मैं तो उनके साथ ही जाती थी और मामाजी कभी सीट पर बैठकर रामलीला देखते नहीं थे। ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया जाता था कि कोई पास-पड़ोस का जानने वाला मिल जाए तो उसे कोई परेशानी न उठानी पड़े। और सिर्फ़ मेरी नानी नहीं उस समय ज़्यादातर लोग ऐसा ही करते थे। बाड़े में इस तरह जाने का सिलसिला तो बचपन में ही ख़त्म हो गया लेकिन साइकिल मार्किट से शुरु होने वाली सवारी हम बिला नागा देखने जाते थे। कभी चाँदनी चौक से, कभी दरीबा से तो कभी नई सड़क से वो सवारी हम देख ही लिया करते थे। बहुत मज़ा आता था शायद इसलिए कि उस समय हम बच्चे थे पर उस वक़्त बड़े भी उस सवारी का आनंद उतने ही मन से और जोश से खुलकर उठाया करते थे। आज के बड़ों जैसा सोफ़ेस्टीकेशन नहीं होता था न, तब खुलकर हर जज़्बात का इज़हार करने का रिवाज था, चाहे कितनी ही छोटी या कितनी भी बड़ी बात क्यों न हो।

कल अख़बार में पढ़ा कि इस बार सवारी का रास्ता ही बदल गया है क्योंकि चाँदनी चौक की सड़कें खुदी पड़ी हैं। 180 सालों से चली आ रही ये सवारी साइकिल मार्केट से शुरु होकर दरीबा कलाँ, चाँदनी चौक, नई सड़क, चावड़ी बाज़ार होते हुए बड़े बाड़े यानी रामलीला मैदान तक पहुँचती थी और रात में इसी रास्ते वापस आती थी। लोग अपने घर की छतों पर चढ़कर, दुकानों में बैठ कर या फिर सड़क किनारे खड़े होकर सवारी का आनंद उठाते रहे हैं। आज भी वहाँ दुकानदार अनजान बुज़ुर्गों को अपनी दुकान में बैठने को जगह दे देते हैं बिना इस डर के कि कहीं उनका सामान चोरी न हो जाए, ये देखकर वाक़ई अच्छा लगता है कि आज भी कहीं तो ये विश्वास बना हुआ है।

ये वो सवारी है जिसे देखने लोग दूर-दूर से आया करते हैं, ख़ासकर विदेशी पर्यटक तो  दीवाने रहे हैं। एक समय में इसकी काफ़ी सज-धज हुआ करती थी। सवारी निकलने से पहले मशक लेकर कुछ लोग सड़कों पर पानी का छिड़काव करते थे, सड़क के दोनों तरफ़ कीटनाशक का छिड़काव भी किया जाता था। फिर पुलिस वाले घोड़ों पर सवार होकर सवारी की शुरुआत और आख़िर में सुरक्षा करते हुए चलते थे। घोड़ों की टापों से ही सवारी के शुरु होने और ख़त्म होने का पता चल जाता था। एक पानी की प्याऊ भी निकलती थी जो राह चलते या देर से इंतज़ार में खड़े बच्चे-बड़े-बूढ़ों की प्यास बुझाती थी, तब वॉटर-बॉटल्स का चलन जो नहीं था ! इसके बाद दिखाई देते थे सजे-धजे हाथी, लोग ख़ुद या अपने बच्चों से उनकी सूंड में पैसे रखवाते थे, और वो प्रशिक्षित हाथी वही पैसे महावत को दे देते थे। ये खेल बच्चों को जहाँ डराता था वहीं रोमांचित भी करता था। इसके बाद शुरु होता था, झाँकियों का सिलसिला जो उस रोज़ मंच पर होने वाली लीला के मुताबिक़ निकलती थीं। हर डोले से पहले मशहूर बैंड कोई लोकप्रिय या उस दिन के मुताबिक़ उपयुक्त धुन बजाते हुए चलते थे। सबसे ज़्यादा मज़ा आता था रावण की एंट्री पर बड़ी-बड़ी मूछों वाले, ऊँचे-लम्बे क़द और भारी भरकम शरीर वाले रावण को देखते ही शोर मचना शुरु हो जाता था। वो भी अपनी बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखों से ऐसा डराते थे कि कुछ बच्चे तो सच में डर जाते थे। ऐसा ही शोर-शराबा होता था जब वानर सेना और राक्षसों के बीच सड़कों पर झूठ-मूट की लड़ाई होती थी। दरअस्ल सब एक दूसरे को जानने वाले गली-मोहल्ले के बच्चे ही होते थे जो ये पार्ट अदा किया करते थे, इसलिए सब मिलकर लुत्फ़ उठाते थे। इसी बीच अपने लोकल उत्पादों का प्रचार करने के लिए कम्पनियाँ रावण या दूसरे किरदारों से फ्री में अपने उत्पाद भी बँटवा दिया करती थीं।

अब न मशक रही, न प्याऊ, न घोड़े, न हाथी (शायद पशु-प्रेमी भी ख़ुश होंगे) ये सब चलन काफ़ी पहले ही ख़त्म हो गया था। अब तो बस बैंड-बाजे के साथ डोले यानी झाँकियाँ आती हैं। हाँ, आज भी इस सवारी में स्त्री और पुरुष दोनों का किरदार लड़के ही निभाते हैं, लेकिन पहचानना बेहद मुश्किल होता है कि जो सीता बनी है वो दरअस्ल "बना" है। इस बार सवारी देखने वालों का दायरा ज़रुर कम हुआ है पर  इस सवारी का चार्म कम नहीं हुआ। इसका जो मक़ाम था, वो आज भी है और तब तक क़ायम रहेगा जब तक इसे संचालित करने वालों और देखने वालों में जोश क़ायम है। सवारी से पहले और बाद में बड़े-बड़े मुखौटे, तीर-कमान, ग़ुब्बारे और कई तरह के नए-पुराने ज़माने के खिलौने लिए फेरी वाले, मसालेदार पापड़, आइसक्रीम और खाने-पीने की चीजें बेचने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती है। उस वक़्त बच्चे अपने माता पिता को धन्नासेठ समझ कर अपनी हर छोटी-बड़ी फ़रमाइश पूरी करने को लेकर अड़ जाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगते हैं। ये पहले भी होता था, आज भी होता है और हमेशा होगा। बस वक़्त के साथ-साथ बेचने वाले, ख़रीदने वाले और बिकने वाला सामान बदलता रहेगा।

जिन्होंने ये सवारी कभी नहीं देखी है उनसे मैं इतना कहूँगी कि एक बार तो ज़रुर देखिए। थोड़ी भीड़ तो होगी और कोई फ़िक्स टाइम भी नहीं है इसका पर शाम 4 से 6 के बीच अक्सर सवारी निकलती है और इस बार तो ज़्यादा लम्बा रुट भी नहीं है- जामा मस्जिद चावड़ी बाज़ार या हौज़काज़ी से देख सकते हैं। मेरा ख़्याल ज़िंदगी में एक बार तो इसे देखना बनता है।