Saturday, January 16, 2021

पुरानी दिल्ली का कटरा नील

पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक में तो पुराना शाहजहाँनाबाद फिर से बनाने की कोशिश की जा रही है। पर मैं सोचती हूँ क्या उससे पुरानी दिल्ली की हालत सचमुच बदल जाएगी ??!! क्या वहाँ के गली, कूँचे, कटरे, हवेलियाँ सब की हालत सुधर जाएगी ??!! मुझे तो ऐसा नहीं लगता.........  आख़िर सत्ता बदल जाने से कभी आम जनता की हालत बदली है ! लेकिन जिस तरह पुरानी दिल्ली की कुछ हवेलियों को रेनोवेट करा के उन्हें पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है, उससे ऐसा ज़रुर लगता है कि एक दिन पुरानी दिल्ली का पूरा इलाक़ा सिर्फ़ दर्शनीय स्थल में बदल कर रह जाएगा और तब बाक़ी दिल्ली वाले उन्हें देखने जाया करेंगे। क्योंकि अभी तो आलम ये है कि वहाँ कोई घटना घट जाए, तो कोई बड़ा अख़बार भी तुरंत उसे कवर नहीं करता, न ही टीवी चैनल्स उसका कोई लाइव टेलीकास्ट करते हैं। हाँलाकि ये काफ़ी हैरत की बात है, पर भला हो सोशल मीडिया का और उन Youtubers का (जो शायद वहीं के रहने वाले होंगे) जिनकी वजह से लोगों तक वहॉं की ख़बर पहुँच जाती है। 

जिस दिन चाँदनी चौक के बीचों-बीच बना हनुमान मंदिर गिराया गया उसी के अगले दिन चांदनी चौक के कटरा नील में दर्जनों दुकानें जल गईं पर मैंने न तो किसी अख़बार में वो ख़बर पढ़ी, न ही टीवी पर वो न्यूज़ दिखाई गई। शायद इस तरह की ख़बरों से किसी को कोई फ़ायदा नहीं मिलता ! क्योंकि ये ख़बरें TRP नहीं बढ़ातीं।  

कटरा नील  जिसे वहाँ के आम लोग नील का कटरा कहते हैं, आज वहाँ लेडीज सूट और कुर्तियों की होलसेल मार्किट है। लेकिन एक ज़माने में वहाँ नील बनाया और बेचा जाता था इसीलिए इस का नाम पड़ा नील का कटरा। वहाँ की गली घंटेश्वर में प्राचीन घंटेश्वर मंदिर है जो वहाँ काफ़ी मशहूर है। एक ज़माने में यमुना नदी इसके आस-पास बहती थी तो वहाँ एक गली धोबियान भी हुआ करती थी, जहाँ धोबी रहा करते थे। इसी के पीछे है बाग़ दीवार, और सब्ज़ी मंडी के साथ-साथ खोया मंडी भी है। पहले तो दिल्ली के ज़्यादातर मिठाई वाले सुबह-सुबह यहीं से खोया ले जाते थे। अब तो दिल्ली में ज़्यादातर लोग मिठाई से परहेज़ रखते हैं, कुछ डाइबिटीज़ की वजह से तो कुछ डाइटिंग के कारण, खाते भी हैं तो ब्रांडेड शुगर-फ़्री वाली मिठाई। लेकिन सच कहूँ तो, वो जो पहले असली खोए को घर लाकर भूना जाता था, फिर उससे तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाई जाती थीं उनकी महक और स्वाद की बात ही कुछ और थी। 

Monday, January 4, 2021

इतिहास को दोहराना या एक और इतिहास को मिटाना !!??

चाँदनी चौक अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर रहा है। यहाँ जितने शौक़ से रामलीला की सवारी निकलती रही है उतनी ही श्रद्धा से  प्रभात फेरी भी निकलती है और ताज़िए भी। कोई और धार्मिक उत्सव हो यहाँ के लोग अक्सर मिल जुल कर मानते रहे हैं। इसकी सदभाव की मिसाल तो खुद वो लम्बी सड़क है जो लाल क़िले से सीधी फ़तेहपुरी जाती है। उस एक रोड पर ही जैन मंदिर से लेकर गौरीशंकर मंदिर फिर गुरुद्वारा, चर्च और आखिर में फ़तेहपुरी मस्जिद सभी धर्मों के आस्था स्थल मिल जाते हैं। लेकिन इनके अलावा भी बहुत से छोटे-बड़े मंदिर-मस्जिद इस पूरे इलाक़े में हैं, जिनकी सभी धर्मों के लोग इज़्ज़त करते हैं और किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं होती। 

चाँदनी चौक की इसी रोड पर घंटाघर की तरफ़ जाते हुए नटराज भल्ले वाले की दुकान से ज़रा सा आगे एक छोटा सा हनुमान मंदिर हुआ करता था। 


उस मंदिर को मैंने अपने बचपन से देखा था, मेरी माँ ने भी अपने बचपन से देखा था और मेरी नानी बताया करती थीं कि जब वो चांदनी चौक आईं थीं, तब से उन्होंने भी उस मंदिर को देखा था। इस तरह माने तो वो मंदिर क़रीब  सौ साल पुराना तो ज़रूर रहा होगा। इस मंदिर से जहाँ लोगों की आस्था जुड़ी थी वहीं बाहर से आने वालों के लिए वो एक लैंडमार्क भी था। "था" इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अब आप फिर कभी उस मंदिर को नहीं देख पाएंगे। कोर्ट के ऑर्डर से उस मंदिर को गिराने की क़वायद कल यानी 3 जनवरी 2021 को शुरु हो गई थी। कल वहाँ भारी मात्रा में पुलिस बल तैनात था और मोती बाज़ार के सामने वाली उस रोड तक पहुँचने के सभी रास्तों पर बेरिकेटिंग कर दी गई थी। 

कहा जा रहा है कि ये मंदिर शाहजहाँनाबाद प्रोजेक्ट में यानी चांदनी चौक के सौन्दर्यीकरण के काम में बाधा था। हाँलाकि उस मंदिर वाली जगह पर एक पुराना पीपल का पेड़ भी है जो कोर्ट के ही एक और आदेश के मुताबिक़ काटा नहीं जा सकता। बल्कि हर पेड़ के आसपास 7" x  7" का चबूतरा बनाया जाना लाज़मी है और लोगों को यही एतराज़ है की जब इतना बड़ा चबूतरा बनना ही है तो मंदिर को क्यों तोड़ा जा रहा है क्योंकि वो मंदिर भी लगभग इतना ही छोटा था। पर जनता के घोर विरोध के बावजूद वो प्राचीन मंदिर कल तोड़ दिया गया। 

गौरवशाली इतिहास की नक़्ल करने के लिए, उस अतीत दोहराने की नाकाम कोशिश में, अतीत की निशानियों को ढहा देने में कौन सी समझदारी है ये मेरी समझ में नहीं तो आता खासकर जब उनसे किसी की श्रद्धा भी जुड़ी हो। 

Saturday, January 2, 2021

तीस हज़ारी का इतिहास

किसी भी जगह का पुराना शहर वहां की विरासत को सँजोए रहता है। उसी तरह दिल्ली है, हाँलाकि नई दिल्ली को बसे भी ज़माना हो गया है पर पुरानी दिल्ली वो जगह है जहाँ के चप्पे-चप्पे में दिल्ली के गौरवशाली अतीत के निशान दर्ज हैं, वहीं ऐसी जगह भी हैं जो उस विनाश और तबाही की गवाह हैं जिनसे दिल्ली को दो-चार होना पड़ा। दिल्ली वाले तीस हज़ारी नाम से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं, एक तो कोर्ट की वजह से ये नाम पहले से ही मशहूर था, फिर मेट्रो आने के बाद वहाँ बने मेट्रो-स्टेशन की वजह से भी ये नाम जाना-पहचाना हो गया। 


मगर ये नाम पड़ा कैसे ? पुराने ज़माने में जगहों के नाम या तो वहाँ रहने वालों की तरफ़ इशारा करते थे या वहाँ की किसी ख़ास निशानी या घटना की तरफ़। लेकिन तीस हज़ारी नाम को लेकर इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं। 

दिल्ली के इतिहास पर नज़र डालें तो पता लगता है कि एक ज़माने में वहाँ एक बाग़ हुआ करता था जिसमें तीस हज़ार (शायद सभी या ज़्यादातर नीम के) पेड़ थे। इसी वजह से उसे तीस हज़ारी बाग़ कहा जाता था। जहाँ आज सेंट स्टीफेंस हॉस्पिटल है उसके आस-पास तक ये बाग़ फैला हुआ था। दिल्ली से बाहर जाने वाले और बाहर से दिल्ली आने वाले व्यापारी अपने लाव लश्कर के साथ इस बाग़ में डेरा डालते थे। कहते हैं कि वो बाग़ शाहजहाँ की बेटी जहाँआरा ने लगवाया था, जिसे पेड़-पौधों और क़ुदरत से बहुत लगाव था। लेकिन 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ों ने इस बाग़ के सभी पेड़ कटवा दिए और बाग़ का नामोनिशान मिटा कर उसे एक मैदान में तब्दील कर दिया। बाग़ ही नहीं बल्कि उस इलाक़े के ज़्यादातर पेड़ इसलिए कटवा दिए गए क्योंकि 1857 की लड़ाई में इन्हीं पेड़ों के पीछे छिपकर हिंदुस्तानी सैनिकों ने ब्रिटिशर्स पर वार किया था। तीस हज़ारी बाग़ के उस मैदान में औरंगज़ेब की बेटी ज़ेबुन्निसा और मोहम्मद शाह की बेगम मलका-उज़-ज़मानी की क़ब्र भी थी, मगर जब दिल्ली में रेलगाड़ी आई तो इसके एक बड़े हिस्से में रेल की पटरियाँ बिछा दी गईं। 

सिख इतिहास में एक कहानी मिलती है सरदार बघेल सिंह के बारे में। ये वही बघेल सिंह हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली के प्राचीन गुरुद्वारों की स्थापना उन्होंने ही की थी। ( हाँलाकि हर गुरूद्वारे के नाम की एक अलग कहानी है ) सिख मान्यताओं के अनुसार क़रीब अठारहवीं सदी में सरदार बघेल सिंह अपनी फ़ौज के साथ दिल्ली आए थे लाल क़िले पर चढ़ाई करने। लेकिन तब के बादशाह शाह आलम द्वितीय को इस हमले की ख़बर पहले ही लग चुकी थी तो उसने महीनों की रसद का इंतज़ाम करके क़िले के सारे दरवाज़े बंद कर लिए। तब सरदार बघेल सिंह ने अंदर जाने के लिए दीवार में एक जगह मोहरी / मोरी (hole ) बनाई, इसी से मोरी गेट का नाम पड़ा। और जब वो जीत गए तो जिस जगह पर मिठाई बना कर बाँटी उस जगह को मिठाई का पुल कहा गया। सरदार बघेल सिंह की फ़ौज में तीस हज़ार घुड़सवार थे जो दिल्ली पहुँचने पर इसी तीस हज़ारी बाग़ की जगह पर रुके थे। सिख साहित्य के मुताबिक़ उन तीस हज़ार सैनिकों की वजह से ही उस जगह का नाम तीस हज़ारी पड़ा। हो सकता है ये दोनों बातें सही हों, और ये मात्र संयोग हो कि जिस बाग़ में तीस हज़ार पेड़ थे उसी में तीस हज़ार सिख सैनिक ठहरे। 

इतिहास के बारे में यही बात खटकती है कि जो लिखा गया वो कितना सही था इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगाया जा सकता। लेकिन आज वहां न बाग़ है, न क़ब्र, न ही वहां ठहरे सैनिकों के कोई निशान। भीड़-भाड़ वाले इस इलाक़े में मेट्रो स्टेशन है और अदालत का वो परिसर है जिसका उद्घाटन 1958 में हुआ था। हाँ, ख़ास ये आज भी है, एशिया के सबसे बड़े कोर्ट के रूप में। यहाँ  ४०० कोर्ट रुम के अलावा वक़ीलों के ढेर सारे छोटे-छोटे केबिन हैं, आप वहाँ जायेंगे तो वो एरिया किसी छोटी बस्ती की तरह ही दिखेगा। पर उस पुराने वक़्त की कोई यादगार, कोई झलक नहीं मिलेगी, शायद इसी को बीत जाना कहते हैं, शायद इतिहास ऐसे ही बनते हैं!