Wednesday, October 30, 2019

मुफ़्त मुफ़्त मुफ़्त !!!!!

पिछले कई महीनों से जो पेंच फँसा हुआ था उसका एक सिरा कल निकल ही गया। भाई दूज यानी 29 अक्टूबर 2019 से दिल्ली में महिलाओं को DTC और क्लस्टर बसों में मुफ़्त सफ़र का तोहफ़ा मिल ही गया। और कहा जा रहा है कि जल्दी ही बुज़ुर्गों और विद्यार्थियों को भी इस तरह का तोहफा दिया जा सकता है।
पर क्या सचमुच ये एक तोहफ़ा है !!!???


क़रीब 1 करोड़ की आबादी वाली दिल्ली में क़रीब 31 लाख लोग रोज़ाना डी टी सी और क्लस्टर बसों में सफ़र करते हैं जिनमें लगभग 30 प्रतिशत महिलाएं हैं, और ज़ाहिर है कि वो इस क़दम से ख़ुश होंगी ही। आख़िर फ़्री में कुछ मिले तो किसे बुरा लगता है। ये छूट यूँ तो सभी महिलाओं को दी जा रही है पर महिला यात्रियों की गिनती के लिए गुलाबी टिकट जारी किया जा रहा है ताकि दिल्ली सरकार उतने पैसे का भुगतान डी टी सी को कर सके।उस टिकट के पीछे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की फोटो के साथ एक सन्देश भी है। लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं जिन पर हमें सोचना चाहिए।

इस योजना को पूरी तरह लागू करने में जो 140 करोड़ रुपए का ख़र्च आ रहा है उसका बोझ किस पर पड़ेगा ???? 
अभी तो इस ख़र्च का वहन दिल्ली सरकार कर रही है पर भविष्य में इसका बोझ आम आदमी की जेब पर नहीं पड़ेगा इसकी क्या गारंटी है !!!

ये एक अच्छा क़दम हो सकता है, मगर इस चुनावी सीज़न में इस योजना के लागू होने पर और टिकट पर मुख्यमंत्री की फ़ोटो और सन्देश देख कर ये एक चुनावी स्टंट ज़्यादा लगता है।

यहाँ सवाल ये भी उठता है कि आख़िर हमें हर चीज़ फ़्री क्यों चाहिए ? 
क्या हम भिखारी हैं, नाकारा हैं, किसी लायक़ नहीं हैं !!! अगर हम काम करते हैं तो अपना ख़र्च भी उठा सकते हैं, फिर फ़्री क्यों ? शायद ऐसा करके सरकारें हमारा ध्यान बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी जैसी मूल समस्याओं से हटाना चाहती हैं। सरकार ही क्यों पूरा बाज़ार अपने उपभोक्ताओं के दिमाग़ से खेल रहा है और हमें एहसास भी नहीं है। आजकल आप देखिये आये दिन चीज़ों पर छूट और ऑफर्स दिए जा रहे हैं खासतौर पर ऑनलाइन शॉपिंग या लेन-देन पर। त्यौहार आने को हों या सीजन बदल रहा हो, हर तरफ़ छूट ही छूट !!!  या सेल सेल सेल !!! के पोस्टर्स और विज्ञापन नज़र आने लगते हैं। 30% 50% 70% ऑफ़ कहीं कहीं तो 100% कैशबैक का वादा भी किया जाता है। इन ऑफर्स का बाक़ायदा लोग इंतज़ार करते हैं। लेकिन कभी सोचा है कि कंपनियों को इससे क्या फ़ायदा होता है? ऐसा तो बिलकुल नहीं है कि उन्हें कोई फ़ायदा नहीं होता होगा, क्योंकि बिना लाभ के तो बिज़नेस नहीं चल सकता। तो क्या हम सचमुच फ़ायदे में रहते हैं या ये सिर्फ़ उस इंसानी फ़ितरत का फ़ायदा उठाने की ऐसी तरक़ीब है जिसमें लुटने वाला लूटने का सुख महसूस करे और ज़्यादा से ज़्यादा ख़रीदारी करे, चाहे उसे उन चीज़ों की ज़रुरत हो या न हो।

अगर हम ख़र्च कर सकते हैं तो फ़्री क्यों ? हमारी इस फ़्री पाने की प्रवृत्ति का फायदा सभी उठाते हैं कम्पनियों से लेकर राजनेता तक। तभी तो चुनावों में बिजली-पानी फ्री करने, बसों और मेट्रो में मुफ़्त सफ़र का लालच दिया जाता है और हम भी उस लालच में आ जाते हैं। बग़ैर ये सोचे-समझे कि इस दुनिया में कुछ भी फ़्री नहीं मिलता, हर चीज़ की एक क़ीमत होती है। भले भी हम सीधे-सीधे उस क़ीमत को अदा नहीं कर रहे हैं पर इनडायरेक्टली हम शायद उससे चौगुनी क़ीमत दे रहे हैं। कभी  टैक्स के रुप में, कभी ज़रुरत से ज़्यादा या बिना ज़रुरत के ख़रीदारी कर के (उन चीज़ों पर भी हम टैक्स देते हैं)।

मेरे ज़हन में कभी-कभी ये सवाल आता है कि बाँटकर खाने वाले, दान देने में विश्वास रखने वाले देश के लोग क्यों, कब, कैसे हाथ फैलाने में, लालच में यक़ीन रखने लगे !!! साथ ही ये ख़याल भी आता है कि जितना ये सरकारें मुफ़्त सहूलियतें देने में वक़्त और पैसा लगाती हैं उतना अगर रोज़गार देने में, बढ़े हुए टैक्स का बोझ कम करने में, और बढ़ती हुई महँगाई को क़ाबू करने में लगातीं तो शायद लोग सस्ते के चक्कर में चीनी उत्पाद ख़रीद कर अपने देश का पैसा बाहर न भेजते और न ही किसी चीज़ के मुफ़्त पाने की लालसा रखते।

मुफ़्त पाना, कम से कम ख़र्च में थोड़ा ज़्यादा पाना किसी को बुरा नहीं लगता। मगर इस तरह के लालच की आदत हमें किस दिशा में ले जा रही है, इस पर गहन सोच-विचार की आवश्यकता है।     

Saturday, October 5, 2019

180 साल पुरानी सवारी

रामलीला के दिन आने पर मैं हमेशा Nostalgic महसूस करने लगती हूँ। आज भी याद है कि सवारी देखकर लौटते ही बाड़े में जाने की तैयारी शुरु हो जाती थी। खाना पैक करके, एक दो पुराने अख़बार, पानी का ग्लास, तश्तरी-चम्मच और हाथ के पंखे थैले में रख लिए जाते थे। मेरी नानी लगभग हर रोज़ शाम होते ही बाड़े में चलने की ऐसी ही तैयारी करती थीं। लीला का मंचन 7-8 बजे से पहले शुरु नहीं होता था पर हम 5 बजे तक वहाँ पहुँच जाते थे, ताकि ऐसी जगह बैठ सकें जहाँ से मंच के किरदारों के चेहरे और भाव-भंगिमाएँ बिलकुल साफ़-साफ़ दिखाई दें और एक-दो कुर्सियों पर क़ब्ज़ा भी जमा सकें। हाँलाकि घर से किसी को नहीं आना होता था, तीन प्राणी तो कुल थे, मैं तो उनके साथ ही जाती थी और मामाजी कभी सीट पर बैठकर रामलीला देखते नहीं थे। ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया जाता था कि कोई पास-पड़ोस का जानने वाला मिल जाए तो उसे कोई परेशानी न उठानी पड़े। और सिर्फ़ मेरी नानी नहीं उस समय ज़्यादातर लोग ऐसा ही करते थे। बाड़े में इस तरह जाने का सिलसिला तो बचपन में ही ख़त्म हो गया लेकिन साइकिल मार्किट से शुरु होने वाली सवारी हम बिला नागा देखने जाते थे। कभी चाँदनी चौक से, कभी दरीबा से तो कभी नई सड़क से वो सवारी हम देख ही लिया करते थे। बहुत मज़ा आता था शायद इसलिए कि उस समय हम बच्चे थे पर उस वक़्त बड़े भी उस सवारी का आनंद उतने ही मन से और जोश से खुलकर उठाया करते थे। आज के बड़ों जैसा सोफ़ेस्टीकेशन नहीं होता था न, तब खुलकर हर जज़्बात का इज़हार करने का रिवाज था, चाहे कितनी ही छोटी या कितनी भी बड़ी बात क्यों न हो।

कल अख़बार में पढ़ा कि इस बार सवारी का रास्ता ही बदल गया है क्योंकि चाँदनी चौक की सड़कें खुदी पड़ी हैं। 180 सालों से चली आ रही ये सवारी साइकिल मार्केट से शुरु होकर दरीबा कलाँ, चाँदनी चौक, नई सड़क, चावड़ी बाज़ार होते हुए बड़े बाड़े यानी रामलीला मैदान तक पहुँचती थी और रात में इसी रास्ते वापस आती थी। लोग अपने घर की छतों पर चढ़कर, दुकानों में बैठ कर या फिर सड़क किनारे खड़े होकर सवारी का आनंद उठाते रहे हैं। आज भी वहाँ दुकानदार अनजान बुज़ुर्गों को अपनी दुकान में बैठने को जगह दे देते हैं बिना इस डर के कि कहीं उनका सामान चोरी न हो जाए, ये देखकर वाक़ई अच्छा लगता है कि आज भी कहीं तो ये विश्वास बना हुआ है।

ये वो सवारी है जिसे देखने लोग दूर-दूर से आया करते हैं, ख़ासकर विदेशी पर्यटक तो  दीवाने रहे हैं। एक समय में इसकी काफ़ी सज-धज हुआ करती थी। सवारी निकलने से पहले मशक लेकर कुछ लोग सड़कों पर पानी का छिड़काव करते थे, सड़क के दोनों तरफ़ कीटनाशक का छिड़काव भी किया जाता था। फिर पुलिस वाले घोड़ों पर सवार होकर सवारी की शुरुआत और आख़िर में सुरक्षा करते हुए चलते थे। घोड़ों की टापों से ही सवारी के शुरु होने और ख़त्म होने का पता चल जाता था। एक पानी की प्याऊ भी निकलती थी जो राह चलते या देर से इंतज़ार में खड़े बच्चे-बड़े-बूढ़ों की प्यास बुझाती थी, तब वॉटर-बॉटल्स का चलन जो नहीं था ! इसके बाद दिखाई देते थे सजे-धजे हाथी, लोग ख़ुद या अपने बच्चों से उनकी सूंड में पैसे रखवाते थे, और वो प्रशिक्षित हाथी वही पैसे महावत को दे देते थे। ये खेल बच्चों को जहाँ डराता था वहीं रोमांचित भी करता था। इसके बाद शुरु होता था, झाँकियों का सिलसिला जो उस रोज़ मंच पर होने वाली लीला के मुताबिक़ निकलती थीं। हर डोले से पहले मशहूर बैंड कोई लोकप्रिय या उस दिन के मुताबिक़ उपयुक्त धुन बजाते हुए चलते थे। सबसे ज़्यादा मज़ा आता था रावण की एंट्री पर बड़ी-बड़ी मूछों वाले, ऊँचे-लम्बे क़द और भारी भरकम शरीर वाले रावण को देखते ही शोर मचना शुरु हो जाता था। वो भी अपनी बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखों से ऐसा डराते थे कि कुछ बच्चे तो सच में डर जाते थे। ऐसा ही शोर-शराबा होता था जब वानर सेना और राक्षसों के बीच सड़कों पर झूठ-मूट की लड़ाई होती थी। दरअस्ल सब एक दूसरे को जानने वाले गली-मोहल्ले के बच्चे ही होते थे जो ये पार्ट अदा किया करते थे, इसलिए सब मिलकर लुत्फ़ उठाते थे। इसी बीच अपने लोकल उत्पादों का प्रचार करने के लिए कम्पनियाँ रावण या दूसरे किरदारों से फ्री में अपने उत्पाद भी बँटवा दिया करती थीं।

अब न मशक रही, न प्याऊ, न घोड़े, न हाथी (शायद पशु-प्रेमी भी ख़ुश होंगे) ये सब चलन काफ़ी पहले ही ख़त्म हो गया था। अब तो बस बैंड-बाजे के साथ डोले यानी झाँकियाँ आती हैं। हाँ, आज भी इस सवारी में स्त्री और पुरुष दोनों का किरदार लड़के ही निभाते हैं, लेकिन पहचानना बेहद मुश्किल होता है कि जो सीता बनी है वो दरअस्ल "बना" है। इस बार सवारी देखने वालों का दायरा ज़रुर कम हुआ है पर  इस सवारी का चार्म कम नहीं हुआ। इसका जो मक़ाम था, वो आज भी है और तब तक क़ायम रहेगा जब तक इसे संचालित करने वालों और देखने वालों में जोश क़ायम है। सवारी से पहले और बाद में बड़े-बड़े मुखौटे, तीर-कमान, ग़ुब्बारे और कई तरह के नए-पुराने ज़माने के खिलौने लिए फेरी वाले, मसालेदार पापड़, आइसक्रीम और खाने-पीने की चीजें बेचने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती है। उस वक़्त बच्चे अपने माता पिता को धन्नासेठ समझ कर अपनी हर छोटी-बड़ी फ़रमाइश पूरी करने को लेकर अड़ जाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगते हैं। ये पहले भी होता था, आज भी होता है और हमेशा होगा। बस वक़्त के साथ-साथ बेचने वाले, ख़रीदने वाले और बिकने वाला सामान बदलता रहेगा।

जिन्होंने ये सवारी कभी नहीं देखी है उनसे मैं इतना कहूँगी कि एक बार तो ज़रुर देखिए। थोड़ी भीड़ तो होगी और कोई फ़िक्स टाइम भी नहीं है इसका पर शाम 4 से 6 के बीच अक्सर सवारी निकलती है और इस बार तो ज़्यादा लम्बा रुट भी नहीं है- जामा मस्जिद चावड़ी बाज़ार या हौज़काज़ी से देख सकते हैं। मेरा ख़्याल ज़िंदगी में एक बार तो इसे देखना बनता है।