Saturday, December 26, 2020

कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर

आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और दरबार में शायर--ख़ास का दर्जा पाने वाले मशहूर शायर शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ ने कहा था - "कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर" - तब उन्हें कहाँ पता था कि एक दिन आएगा जब उनकी महबूब दिल्ली की तंग गलियां बे-रौनक़ हो जाएँगी। यहाँ बात पुरानी दिल्ली की हो रही है जिसकी साज-सजावट का काम काफ़ी अरसे से चल रहा है। सुना है कि इस बार गणतंत्र दिवस की परेड में उस नई सी दिखने वाली दिल्ली की झाँकी दिखाई जाएगी। जब आप उसे देखेंगे तो सचमुच आपका दिल ख़ुश हो जाएगा मगर हक़ीक़त आप तभी जान पाएंगे जब आप ख़ुद वहाँ गए हों। 


बीच में वहाँ की जो तसवीरें वायरल हुईं उन्हें देखने के कुछ दिनों के बाद मैं भी वहाँ गई मगर हालात पहले से ज़्यादा ख़राब नज़र आए। पान-गुटखे की जो पीक पहले आम सड़कों और दीवारों पर नज़र आती थी वो अब उन लाल पत्थरों के रंग में घुल-मिल गई है। चाट-पकौड़ी के दोने-पत्तलों का कूड़ा भी जगह जगह दिखा। भीड़ भी उतनी ही थी और रिक्शा चलाने वालों की लाइन भी। यूँ भी उस इलाक़े में बदलाव करना इतना आसान नहीं है, जितना इन तस्वीरों में नज़र आता है। इस Beautification की प्रक्रिया में उन लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं जो दूर-दराज़ से वहां ख़रीदारी करने जाते हैं। मुश्किलें तो वहाँ रहने वालों की भी बढ़ी हैं पर वो तो वहाँ के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ हैं तो गलियों-गलियों से निकल कर अपना रोज़मर्रा का सफ़र तय कर लेते हैं। या कहें कि उन्हें आदत है उस माहौल में जीने की क्योंकि उन्होंने वहीं आँखें खोलीं, बचपन से उन्हीं तंग गलियों से दोस्ती रही है, उन्हीं हवेलियों में गुज़र-बसर हुई है जहाँ "प्राइवेसी" नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। 

पुरानी दिल्ली में रहने वाले ज़्यादातर किरायेदार हैं, पर इतने पुराने कि जिस घर या हवेली के कमरे में वो रह रहे हैं उस पर अब उनका ही अधिकार है। ज़्यादातर के पुरखे यहाँ आए और फिर यहीं के हो गए, कुछेक ने तो उसी एक छोटे से कमरे में अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी। बाद में कुछ ने वही पुरानी हवेली या कमरा ख़रीद लिया और बदलती पीढ़ी के वो लोग जिन्हें उन तंग गन्दी गलियों में कोई फ्यूचर नज़र नहीं आया ( जो असल में है भी नहींउनमें से कुछ ने पुरानी दिल्ली से कहीं बाहर किसी कॉलोनी में कोई फ़्लैट ख़रीद लिया या मकान बनवा लिया। जो  यहाँ रह रहे हैं या तो मजबूरी में या इसलिए कि उन्हें उस जगह से प्यार है, वहां उनका जन्म हुआपढाई-लिखाई हुई, दोस्त बने और बिछड़े, तो एक लगाव होना लाज़मी हैएक इमोशनल अटैचमेंट। वैसे वहाँ रहने वाले पुराने किराएदारों में कुछेक लोग ऐसे भी हैं जो ब वहाँ रहते नहीं हैं लेकिन अपना क़ब्ज़ा भी नहीं छोड़ना चाहते। ताकि जब भी वो हवेली बिके तो उन्हें भी उस कमरे का शेयर मिले जो बाक़ी लोगों को मिलेगा।    

जो लोग पुरानी दिल्ली से निकल गए वो अब वहाँ रहने वालों को 'कुँए का मेढ़क' कहते हैं। मगर वहाँ रहने वालों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता हाँलाकि अब चांदनी चौक के इलाक़े में अंदर गलियों में भी पूरी मार्किट बन गई है, दुकानें हैं, गोदाम हैं और गंदगी भी बहुत बढ़ गई है। मकान भी काफ़ी पुराने और जर्जर हालत में हैं जो चूहों का परमानेंट ठिकाना बन गए हैं। फिर भी चोरी-चकारी के मामले में वो इलाक़ा आज भी दिल्ली के दूसरे इलाक़ों से ज़्यादा सुरक्षित है, वहाँ से हत्या और आत्महत्या जैसी ख़बरें भी नहीं आतीं। क्योंकि उन हवेलियों में इंसान कभी अकेला ही नहीं होता और सभी पुराने लोग हैं तो एक दूसरे का ख़्याल भी रखते हैं (कभी-कभी ज़बरदस्तीऔर एक दूसरे पर विश्वास भी करते हैं।

हर तरह का सामान दो क़दम की दूरी पर मिल  जाता है, रेलवे स्टेशन भी पास में है, बस अड्डा भी और मेट्रो भी। हॉस्पिटल से लेकर थोक की मार्किट और सबसे बढ़कर खाने-पीने की दुकानें-रेहड़ी जहाँ दिल्ली के बेहतरीन स्वादिष्ट व्यंजन मिलते है। एक ज़माने में चांदनी चौक और फ़तेहपुरी के बीच घंटाघर पर रात के डेढ़ दो बजे भी परांठे और चाय मिल जाती थी। अब तो पता नहीं मिलती है या नहीं .........  मगर हलवा-नगौरी का नाश्ता आज भी सुबह-सुबह मिल जाता है और 10 -15 साल पहले तक ये सिर्फ़ वहीं मिलता था वो भी सिर्फ़ 10 बजे तक, लेकिन बाद में दिल्ली के दूसरे इलाक़ों में भी इस नाश्ते की ख़ुशबू पहुँच गई। 


नटराज के दही-भल्ले, ज्ञानी का फालूदा, दौलत की चाट, लोटन के चटपटे छोले और पराँठे वाली गली के पराँठे.... इस तरह की मशहूर चीज़ों के लिए आज भी लोग वहाँ जाते हैं। हाँलाकि अब वो क्वालिटी नहीं मिलती ही पहले वाला माहौल है और जिस तरह से हालात बदल रहे हैं अब लोग वहाँ से निकलने की बात सोचने लगे हैं। ख़ासकर नई पीढ़ी जो मल्टीनेशनल कम्पनीज़ में काम करती हैएक क्लिक पर जिसके सामने पूरी दुनिया खुल जाती है, जिसे बहुत ऊँचा उड़ना है। उनकी उस उड़ान के लिए, उनके विशाल पंखों के लिए ये आसमान जो पहले से बहुत तंग था दिन--दिन और तंग होता जा रहा है। 

Saturday, December 19, 2020

"दिल्ली" वो नाम जिसने एक लम्बा सफ़र तय किया

मिर्ज़ा ग़ालिब और दिल्ली का क्या रिश्ता है, इससे तो सभी वाक़िफ़ हैं और दिल्ली से उन्हें कितनी मोहब्बत थी ये इस शेर से ज़ाहिर होता है -

इक रोज़ अपनी रुह से पूछा, कि दिल्ली क्या है ?
तो यूँ जवाब में कह गए,
ये दुनिया मानो जिस्म है और दिल्ली उसकी जान है। 
-मिर्ज़ा ग़ालिब-   

हम जहाँ रहते हैं, या जिन जगहों पर हमने एक अच्छा वक़्त गुज़ारा हो, जिससे काफ़ी यादें जुडी हों, खासतौर पर बचपन की, तो उन जगहों से हमारा एक रिश्ता बन जाता है। मेरा दिल्ली से वही रिश्ता है इसीलिए दिल्ली का नाम सुनते ही एक अपनापन सा महसूस होता है। यूँ तो दिल्ली हमेशा ही चर्चा में रही है पर पिछले काफ़ी वक़्त से ये धरना प्रदर्शनों के कारण काफ़ी लाइमलाइट में है, चाहे वो अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव का प्रदर्शन रहा हो या शाहीन बाग़ का। कभी दिल्ली pollution की वजह से बदनाम होती है तो कभी बलात्कार की घटनाओं से शर्मिंदा होती है। कभी यहाँ बॉम्ब ब्लास्ट होते हैं तो कभी पॉलिटिकल ब्लास्ट। पोलिटिकल ब्लास्ट का तो पूरा एक इतिहास रहा है। कहते हैं कि दिल्ली के सिंहासन पर क़रीब 72 राजाओं ने राज किया है। ये मॉडर्न दिल्ली से पहले की बात है जब दिल्ली, दिल्ली नहीं थी, देहली भी नहीं थी। जो राजा यहाँ आया उसने इसे एक नया नाम दे दिया। 

सबसे पहले यहाँ एक हरा-भरा घना जंगल था जो खाण्डववन या इंद्रवन कहलाता था। चंद्रवंशी राजा सुदर्शन यहाँ आये और उन्होंने जंगल कटवा कर यहाँ एक बहुत सुन्दर नगर बसाया जिसका नाम था - खांडवपुरी। लेकिन वो नगरी जल्दी ही उजड़ गई और फिर से जंगल बन गया। उसके बाद पांडव यहाँ आए और उन्होंने इंद्रप्रस्थ बसाया। इंद्रप्रस्थ से दिल्ली बनने के बीच ये सात बार उजड़ी और बसी। चौहान आये तो क़िला राय पिथौरा नाम का शहर बनाया।  खिलजियों ने बसाया सिरी, तुग़लकों ने तुग़लकाबाद फिर जहाँपनाह और फ़िरोज़ाबाद इसके बाद नाम पड़ा दीनपनाह या शेरगढ़ और फिर शाहजहाँनाबाद जिसे शाहजहाँ ने बसाया। उसके बाद तो अँगरेज़ यहाँ आ ही गए थे। 

वैसे अगर चीज़ें अगर बदलती रहे तो उनकी ताज़गी बरक़रार रहती है और इसी से वो विकास भी कर पाती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में कभी-कभी वो इस क़दर बदल जाती हैं कि उनका असल नाम -पहचान हम भूल ही जाते हैं। जैसे ये कि असल में दिल्ली नाम कहाँ से आया और किसने दिया। इसके बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। कुछ कहते हैं कि दिल्ली "दिल" शब्द से बना है जिसका अर्थ है ऊंची जगह या उजड़ी हुई बस्ती। किसी का मानना है कि दिल्ली ऐसी नर्म और पिलपिली जगह को कहते हैं, जहाँ धरती में कील न गाड़ी जा सके। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि कन्नौज का एक राजा था जिसका नाम था - दिल्लू, उसके सेनापति ने अपने राजा के नाम पर इस शहर को बनवाया था। वैसे तोमर वंश के समय दिल्ली को ढिल्ली या ढिल्लिका कहा जाता था और उस वक़्त ये हरियाणा का एक नगर था। ये माना जाता है कि प्रसिद्ध शायर और दार्शनिक अमीर ख़ुसरो के समय तक दिल्ली या देहली नाम सुना जाने लगा था। उन का एक शेर है -

"या कि अस्पम बख़्श, या अज़ ख़ोर बिगरमा बारग़ीर 
या बिफ़रमायद कि गरदूँ नशीमन व देहलू रवम।" 
-अमीर ख़ुसरो- 

इसका मतलब है कि या तो मुझे घोड़ा दे या अस्तबल के दरोगा से कह कि मुझे सामान उठाने वाला दे या कि कोई सवारी मिले जिसमें बैठकर मैं देहलू जा सकूँ। 

इंद्रप्रस्थ, खांडवप्रस्थ, ढिल्ली, ढिल्लिका, योगिनीपुरी, किलोखड़ी, नया शहर, देहलू, देहली, DELHI (देल्ही), या दिल्ली। जाने कितने नाम बदले हैं दिल्ली के और आजकल जैसे नाम बदलने का चलन चलन चल पड़ा है, हम बस दुआ ही कर सकते हैं और उम्मीद भी कि कम से कम दिल्ली का नाम न बदले। 

Saturday, December 12, 2020

Seven wonders at one place




अपने सिस्टम पर कुछ ढूंढ रही थी तो अचानक ये पिक्चर्स दिख गईं और याद आया कि ऐसा ही मौसम था जब हमारा पूरा परिवार "वेस्ट टू वंडर" पार्क में गया था बहुत मज़ा आया था। यूँ तो यादें हमेशा दिल में बसी रहती हैं मगर तसवीरें उन बासी हुई यादों को बिलकुल ऐसे ताज़ा कर देती हैं जैसे कल ही की बात हो। क़रीब दो साल पहले अख़बार में पढ़ा था कि दिल्ली में सराय काले ख़ाँ के पास एक ऐसा पार्क बनाया गया है जो वेस्ट मेटीरियल से बना है। वेस्ट मेटीरियल पढ़ कर तो मुझे सबसे पहले चंडीगढ़ का रॉक गार्डन याद आया। फिर पता लगा कि ठीक "वेस्ट टू वंडर" जैसा पार्क राजस्थान के कोटा में भी है, उसी से इंस्पायर होकर दिल्ली में इसे बनाया गया। 

जब मैंने इसके बारे में घर में बताया तो एक दिन मेरी कजिन सिस्टर और हम सब का प्रोग्राम बना कि इस अनोखे पार्क में घूमने जाया जाए। असली अजूबे देखने के लिए तो अलग अलग देशों में जाना पड़ेगा यहाँ तो सब एक साथ दिख जाएंगे, असली न सही रेप्लिकाज़ को देख कर ही संतुष्ट हुआ जाए। तो हम सब भाई बहन बच्चों के साथ पहुँच गए और एंट्री करते ही बच्चे तो बहुत खुश हुए क्योंकि जगह जगह पेड़ों पर लटके हुए बन्दर दिखे तो कहीं पांडा कहीं बेबी टाइगर। सबसे ज़्यादा भीड़ थी उन पानी के झरनों के आस-पास जिन्हें सेल्फ़ी स्पॉट के तौर पर बनाया गया है और ज़ाहिर है वहाँ बच्चे-बड़े सभी मौजूद थे और उतनी भीड़ में सेल्फ़ी लेना तो दूर की बात है खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा था। इसलिए हम वहां से आगे बढे और फिर सिलसिला शुरू हुआ दुनिया के सात अजूबों की प्रतिकृतियों का, एक के बाद एक रीयलिस्टिक अनोखी रेप्लिकाज़। आगरा का ताजमहल, गीज़ा के पिरामिड, पेरिस का एफ़िल टावर, पीसा की झुकी हुई मीनार, रियो डी जनेरियो का क्राइस्ट रीडीमर, रोम का कोलोजियम, और न्यूयॉर्क की स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी। हर अजूबे के पास उसके बारे में विस्तार से बताने वाले सूचना पट्ट भी लगे हैं। 


पूरे पार्क में जगह जगह बेंच बनाये गए हैं ताकि आप थक जाएँ तो वहां बैठ कर थोड़ा सुस्ता लें मगर ऐसा मौक़ा ही नहीं आया, बहुत जल्दी ये सिलसिला ख़त्म हो गया यूँ लगा कि अभी तो आये थे और बस !!! आँखें और भी कुछ देखना चाहती थीं, या हम कुछ ज़्यादा उम्मीद और वक़्त लेकर गए थे, लेकिन आधा घंटा भी नहीं लगा और हमने पूरा पार्क देख लिया। तब तक मेरी कज़िन और उसकी फॅमिली वहाँ नहीं पहुँच पाए थे और वहां अंदर कोई रेस्टोरेंट भी नहीं था जहाँ बैठ कर इंतज़ार करते। आसमान में बादल भी कुछ-कुछ मेहरबान होने लगे थे, और हल्की बारिश ने मूड को और भी फ्रेश कर दिया था लेकिन बच्चों को बीमार नहीं करना था इसलिए बारिश ज़्यादा होती उससे पहले ही हम बाहर निकल गए। उस समय तक थोड़ी-बहुत ही लाइटिंग शुरु हुई थी, लेकिन जब तक मेरी कज़िन वहाँ पहुँची तब तक पूरा पार्क रौशनी से नहा चुका था और उन सोडियम लाइट्स के बीच वो रेप्लिकाज़ एकदम असली लग रही थीं। 




पार्क विजिट करने के बाद मैंने इसके बारे में थोड़ी रिसर्च की और फिर FM गोल्ड के शो "छूमंतर" में इसको कवर भी किया। पता चला कि इस पार्क को बनाने में क़रीब 150 टन कचरे का इस्तेमाल किया गया जिसमें ऑटोमोबाइल कबाढ़, पंखे, छड़ी, लोहे की चादरें, नट-बोल्ट्स, साइकिल, टाइप-राइटर, पुराने बेंच और मोटर साइकिल समेत कई अन्य धातुओं के कचरे को रीसायकल करने के बाद उसका यूज़ यहाँ किया गया पर हैरत की बात ये है कि इतना स्क्रैप यूज़ करने के बावजूद इसे बनाने में क़रीब साढ़े सात करोड़ रूपए का ख़र्च अलग से आया है। पर ये पार्क है पूरी तरह इको फ्रेंडली। यहाँ विंड और सोलर पावर का भी इस्तेमाल किया गया है, जिसके लिए यहाँ सोलर ट्री लगाए गए हैं। कोरोना ख़त्म हो जाए और मौक़ा लगे तो ज़रा घूम आइएगा, फ़ीस बहुत ज़्यादा नहीं है, सुबह 11 बजे से रात 11 बजे तक कभी भी जा सकते हैं। और मुझे लगता है जाएंगे तो ख़ुश होकर ही वापस आएँगे।