Sunday, September 22, 2019

DPL- दिल्ली की अपनी लाइब्रेरी

पुस्तकालयों के इस सफ़र में एक अनुभव गज़ब का रहा, वहाँ जाकर मैं ख़ुद हैरत में पड़ गई। अगर आप कभी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से गुज़रे हों तो शायद आपकी नज़र दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी पर पड़ी हो, जिसकी इमारत ठीक रेलवे स्टेशन के सामने है। हाल-फ़िलहाल में गए होंगे तो एक साफ़-सुथरी इमारत पर बड़े-बड़े अक्षरों में हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में लिखा देखा होगा -दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी। लेकिन जो लोग सालों से वहाँ नहीं गए उनके लिए उस इमारत को पहचानना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। अपने स्कूल-कॉलेज के दौर में कभी-कभी मैं पापा के साथ वहाँ जाया करती थी। उन दिनों उस इमारत की हालत बहुत ही ख़स्ता थी, एक पुराना सा बोर्ड लगा हुआ था, जिसे ध्यान से देखने पर ही लाइब्रेरी के बारे में पता चलता था। वर्ना उसके आगे से गुज़रने पर भी ये जानना मुश्किल होता था कि वहाँ कोई लाइब्रेरी है। अंदर भी कोई ख़ास अच्छे हालात नहीं थे, इसीलिए हम सिर्फ़ किताबें इशू कराके लौट आते थे और कई बार तो घर आकर पता चलता था कि उन किताबों की हालत भी अच्छी नहीं थी। कम से कम मेरी याददाश्त में तो उस लाइब्रेरी की यही छवि उभरती है, लेकिन अब उसकी पूरी तरह कायापलट हो चुकी है।


ज़रा सोचिए कि एक सार्वजनिक पुस्तकालय में किताबों के अलावा और क्या-क्या सुविधाएँ मिल सकती हैं !! अगर मैं कहूँ कि जिम, योग-सेंटर, कैफ़े, ऑडिटोरियम तो शायद आपको यक़ीन नहीं होगा, पर दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में ये सभी सुविधाएं अपने सदस्यों के लिए मुहैया कराई जाती हैं।




इनके अलावा ई-लाइब्रेरी है और बच्चों के लिए एक कोना अलग से। ये सब बातें DPL की सेंट्रल ब्रांच की हैं, जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग पर स्थित है। इसके अलावा चार ज़ोन में चार और शाखाएँ हैं और उन चारों की Sub-Branches भी हैं और सब की अपनी-अपनी ख़ासियत है। इन सबके अलावा ओबेरॉय होटल के पास लाल बहादुर शास्त्री मार्ग पर B.R.A. बिल्डिंग में  एक ब्रेल लाइब्रेरी भी है।

1944 में जब भारत आज़ादी पाने के क़रीब ही था तब दिल्ली में एक पब्लिक लाइब्रेरी बनाने पर विचार-विमर्श चल रहा था। उस समय रामकृष्ण डालमिया ने पुस्तकालय की इमारत बनांने के लिए कुछ रक़म अनुदान में दी थी। उसके बाद 1950 में भारत सरकार और UNESCO ने इस प्रोजेक्ट में दिलचस्पी ली और 27 अक्टूबर 1951 को दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की बाक़ायदा शुरुआत हुई।

पूरे भारत में चार पुस्तकालय ऐसे हैं जिनमें पार्लियामेंट के 1954 के Delivery of  Books and Newspaper एक्ट के तहत हर भारतीय प्रकाशक को अपने प्रकाशन की पुस्तक की एक कॉपी फ्री में उपलब्ध कराना ज़रुरी है। DPL उनमें से एक है इन मायनों में ये एक बड़ी डेपोसिट्री लाइब्रेरी है, जो मोबाइल लाइब्रेरी सेवा भी उपलब्ध कराती है। "घर-घर दस्तक, घर-घर पुस्तक" अभियान के तहत इस लाइब्रेरी की पाँच बसें हैं जो एक हफ्ते में 100 पॉइंट्स को कवर करती हैं, इनमें से 25 जगहों पर ब्रेल पॉइंट्स बनाए गए हैं। 



अगर आप लाइब्रेरी तक नहीं जा सकते तो भी कोई बात नहीं है आप यहाँ के कंट्रोल रुम में फ़ोन करके बहुत ही कम शुल्क पर घर बैठे किताबें मँगा सकते हैं, शर्त इतनी है कि आप इस लाइब्रेरी के सदस्य हों। सदस्य होने पर आप नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी की सुविधा का लाभ भी उठा सकते हैं जिसमें कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय डिजिटल पुस्तकालयों को एक ही वेब पोर्टल पर जोड़ा गया है। DPL की ऑफ़िशियल वेबसाइट पर कई ऐसे लिंक आपको मिल जाएँगे जहाँ से आप फ़्री E-Books पढ़ और डाउनलोड कर सकते हैं, और कई ऑनलाइन सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं।

अगर किसी पुरानी ख़बर को खंगालना हो तो भी आप यहाँ जा सकते हैं, क्योंकि यहाँ 1954 से लेकर मौजूदा समय तक के कई मशहूर अख़बारों को संजो कर रखा गया है। इसके अलावा यहाँ के गैज़ेट सेक्शन में ऐसे बहुत से मूल्यवान जर्नल्स हैं जिनमें विधि-निर्माण, नियम और आधिकारिक घोषणाओं के रेकॉर्ड्स हैं। यहाँ दो सभागार भी हैं जहाँ अक्सर बुक रीडिंग सेशंस, स्टोरी टेलिंग सेशंस के अलावा काव्य संगोष्ठी, सेमीनार, पुस्तक लोकार्पण जैसे कार्यक्रम होते रहते हैं, बच्चों की छुट्टियों में तरह तरह की प्रतियोगिताओं और कार्यशालाओं का आयोजन भी किया जाता है।

DPL में बुज़ुर्गों, महिलाओं और दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए एक ख़ास जगह हमेशा आरक्षित रहती है, ताकि उन्हें किसी तरह की परेशानी न उठानी पड़े। और पढ़ने की आदत को बढ़ावा देने के लिए ही बनाया गया है "Chai-Brary" बुक कैफ़े, जहाँ बैठ कर आप अपनी पसंद की किताबें पढ़ने के साथ साथ चाय-कॉफ़ी और स्नैक्स का लुत्फ़ उठा सकते हैं।


दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने

सदस्यता फ़ीस:- 20 रुपए
समय:- 9:30AM - 6:00 PM

Sunday, September 15, 2019

हिंदी दिवस: कितना सार्थक !!

हिंदी दिवस आया और कुछ सेमिनार्स, लेक्चर्स और कई औपचारिक कार्यक्रमों के साथ संपन्न हो गया। न तो इस दिन किसी ने सोचा और न ही इस दिन के बाद किसी को इस बात की फ़िक्र होगी कि स्कूलों में हिंदी बोलने पर बच्चों को सज़ा क्यों दी जाती है ? अगर आप इसे राजभाषा कहते हैं तो क्यों स्कूलों में हिंदी अनिवार्य विषय नहीं है ? भारत के सभी राज्यों को देखें तो सबमें अपनी-अपनी मातृभाषा के लिए इतना सम्मान है कि उन्हें और कोई भाषा आए न आए, अपनी मातृभाषा ज़रुर आती है। चाहे वो बंगाली हो, मराठी हो, भोजपुरी,तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम या पंजाबी। लेकिन हिन्दी-भाषी लोगों को अपनी ही भाषा बोलते हुए शर्म आती है, शायद इसीलिए ज़्यादातर प्राइवेट स्कूल्स हिंदी बोलने पर सज़ा देने की हिम्मत कर पाते हैं।

कॉर्पोरेट सेक्टर में तो हिंदी बोलने और लिखने वालों को ऐसी नज़रों से देखा जाता है जैसे वो अनपढ़ हों। मीडिया में कमाई का ज़रिया तो हिंदी होती है पर बातचीत से हिंदी एकदम ग़ायब हो जाती है, खासतौर पर आप अगर किसी बड़ी पोस्ट पर हैं तो आप हिंदी कैसे बोल सकते हैं !!! भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालयों में भी हिंदी का प्रयोग न के बराबर है। आजकल टीवी के 90 प्रतिशत फ़िल्मी चैनल्स पर अक्सर हिंदी में डब की गई दक्षिण भारतीय फ़िल्में दिखाई देती हैं। कई दक्षिण भारतीय फिल्मकार अपनी फिल्में हिंदी में भी साथ-साथ बना रहे हैं। लेकिन जब हिंदी को देश की भाषा बनाने का प्रस्ताव आता है तो हंगामा हो जाता है। कहा जाता है कि हिंदी उन पर ज़बरदस्ती थोपी जा रही है। अगर हिंदी से इतनी ही दिक्कत है तो क्यों लोग हिंदी सिनेमा में जगह बनाने के लिए तड़पते हैं ?

हम आम बातचीत में या कारोबारी भाषा में भी हिंदी के अलावा उर्दू और इंग्लिश के कितने ही शब्दों का बेझिझक इस्तेमाल कर लेते हैं। लेकिन शायद आपको जानकर हैरानी होगी कि प्रोफेशनली उर्दू लिखते हुए या बोलते हुए हिंदी के शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, हाँ उनकी जगह आप इंग्लिश के शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं। यक़ीन नहीं आता तो कोई साप्ताहिक उर्दू पत्रिका उठा के देख लीजिए या भारत के उर्दू चैनल लगा लीजिए, ख़ुद समझ जाएँगे। और तो और रद्दी वाला भी हिंदी के अख़बार कम पैसों में लेता है !

और हम बात करते हैं हिंदी के प्रचार-प्रसार और तरक़्क़ी की !!!

ग़लत हिंदी बोलने पर हमें कोई शर्मिंदगी नहीं होती पर इंग्लिश ज़रा भी ग़लत हो जाए तो हम पानी-पानी हो जाते हैं। और इसके लिए काफ़ी हद तक हम ही ज़िम्मेदार है, जो अँग्रेज़ी ग़लत बोलने पर तुरंत टोक देते हैं लेकिन जब कोई हिंदी ग़लत बोलता या लिखता है तो किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बल्कि "चलता है"। आज के बच्चों को तो छोड़िए कितने ही शिक्षकों को ये नहीं पता होता कि हिंदी में किन शब्दों पर बिंदी यानी अनुस्वार लगता है और किन पर चँद्र बिंदु। सुना तो ये भी है कि अब चँद्र बिंदु का चलन ही ख़त्म हो गया है, बिंदु लगाएँ या ग़लत जगह लगाएँ वो "ग़लती" ही नहीं मानी जाती। हिंदी की गिनती और वर्णमाला की हालत तो और भी ख़राब है। पर हम बस हिंदी दिवस पर कोरे भाषण देंगे या उन्हें सुनकर तालियाँ बजाकर अपने कर्तव्य का पालन कर लेंगे। हम लोग आँकड़े देख कर भी बहुत जल्दी ख़ुश हो जाते है, 900 से ज़्यादा हिंदी शब्द ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी (शब्दकोष) में शामिल हो गए- "WOW " !!!!!

हमारे साथ परेशानी ये है कि हम ख़ुद से ज़्यादा दूसरों की स्वीकृति को मान्यता देना पसंद करते हैं। जब दूसरे हमारी भाषा, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति को तवज्जो देते हैं तो हम अचानक जाग जाते हैं।
क्यों अपनी ही भाषा बोलते लिखते हुए हमारा आत्मविश्वास डगमगा जाता है ?
क्यों शुद्ध हिंदी बोलना अक्सर मज़ाक़ का विषय बन जाता है ?
क्यों हम अपनी भाषा को वो सम्मान नहीं देते जिसकी वो हक़दार है ?

ये ठीक है कि सिर्फ़ हिंदी लिख-पढ़ और बोल कर हिंदुस्तान में सफलता की ऊँचाइयों को छूना मुश्किल है। लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं है कि हम अपनी भाषा का सम्मान करना छोड़ दे। मैंने कहीं पढ़ा था कि जो अपनी भाषा का सम्मान नहीं करता, दुनिया में उसे भी सम्मान नहीं मिलता। और फिर कोई दूसरा तो आकर हमारी सोच हमारे हालात नहीं बदलेगा, ये कोशिश तो हमें ही करनी पड़ेगी। शायद उस दिन हम सही मायनों में हिंदी दिवस का जश्न मना पाएँ !!!  

Saturday, September 14, 2019

किताबें कुछ कहती हैं



किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से 
बड़ी हसरत से तकती हैं 
महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं 
-गुलज़ार-
रोज़मर्रा के व्यस्त जीवन में शायद अलमारी के बंद दरवाज़ों को खोलने की फ़ुरसत न मिले, पर समय-समय पर लगने वाले पुस्तक मेले किताबों से मुलाक़ात का एक मौक़ा ज़रुर दे देते हैं। और वहाँ उमड़ी भीड़ को देखकर महसूस ही नहीं होता कि किताबों से जो नाता क़ायम है वो सिर्फ़ देखने-दिखाने तक सीमित है।


11 सितम्बर से एक बार फिर दिल्ली में पुस्तक मेले का आयोजन हुआ, फिर से लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। कुछ लोग ऐसे भी रहे जिन्हें इसके बारे में कुछ पता नहीं था, पर जिन्हें पता था वो मौक़ा मिलते ही बुक फेयर चले गए और उन्होंने किताबों पर मिलने वाली छूट का जमकर लाभ भी उठाया। "100 रुपए के 3 उपन्यास या किताब" वाली छूट अमूमन अँग्रेज़ी की किताबों पर होती है और ख़रीदने वालों में ऐसे लोगों की सँख्या भी कम नहीं होती जो न तो लेखक के विषय में बहुत ज़्यादा जानते हैं न उस किताब के विषय में, लेकिन छूट का लाभ उठाने के लिए बुक कवर देख कर या किताब के नाम पर सरसरी सी नज़र डाल कर randomly किताबें चुन लेते हैं। अब इनमें से कितनी किताबें वो पढ़ पाते हैं ये कहना ज़रा मुश्किल है।


हाँलाकि इस दफ़ा हिंदी की किताबों के स्टॉल्स भी काफ़ी हैं। NCERT, NBT, साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी, संस्कृत अकादमी के अलावा बहुत से प्रकाशकों ने इस पुस्तक मेले में भाग लिया। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग की प्रदर्शनी एकदम अलग पवेलियन में है। यहाँ महात्मा गाँधी पर तो अनेक पुस्तकें हैं ही, साथ ही भारत, भारतीय शहर, कला और साहित्य से जुड़ी अनेक महत्वपूर्ण किताबें यहाँ देखने को मिलीं। गुणवत्ता की दृष्टि से मुझे ये पवेलियन सबसे बेहतर लगा।


इस बार का पुस्तक मेला सिर्फ़ हॉल नंबर 7 तक सिमटा हुआ है, उसी में स्टेशनरी फेयर भी लगा है। और सच कहूँ तो किताबों से ज़्यादा भीड़ स्टेशनरी के स्टॉल्स पर नज़र आती है, खासतौर पर अगर आप के साथ छोटे बच्चे हैं तो रंग-बिरंगे पेन, पाउचेस, स्टिकर्स, अलग अलग तरह के रंग, रबर, पेंसिल्स और गिफ़्ट पैक्स सब बच्चे तो बच्चे बड़ों को भी मोह लेते हैं। इसके अलावा यहाँ सोना बेल्ट, स्ट्रेटटनिंग हेयर ब्रश, ट्रैवलिंग आयरन, खट्टी मीठी गोलियाँ, चूर्ण, शेंडेलेयर्स, ब्रास बोतलें भी बिकती नज़र आईं। हाँलाकि बुक फेयर में इन सबके होने की वजह मुझे आज तक कभी समझ नहीं आई।

ख़ैर ! बहुत सी ऐसी बातें हैं जो शायद आपको भी कभी समझ नहीं आती होंगी जैसे मुझे ये समझ नहीं आता कि हिंदी के ज़्यादातर प्रकाशक अपने स्टॉल्स को थोड़ा आकर्षक क्यों नहीं बनाते ? अपने प्रचार पर ज़ोर क्यों नहीं देते ? फिर उनकी ये शिकायत रहती है कि आजकल लोग हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते। आज के प्रतियोगिता के युग में अगर ख़ुद को एक दमदार स्थिति में बनाए रखना है, अपनी एक मज़बूत जगह बनानी है, अपना साहित्य लोगों तक पहुँचाना है, तो उसका प्रचार-प्रसार तो करना पड़ेगा वो भी आज के ज़माने के हिसाब से।

मुझे दिल्ली पुस्तक मेले में जाने का बहुत फ़ायदा हुआ, एक ऐसी किताब जिसे मैं काफ़ी समय से ढूँढ रही थी, आज अचानक मिल गई वो भी बिना ढूँढे, इसलिए मेरा जाना तो सफल रहा। अब इंतज़ार है विश्व पुस्तक मेले का जहाँ दुनिया भर का साहित्य एक साथ एक ही जगह पर उपलब्ध होगा।

Tuesday, September 10, 2019

वक़्त के क़दम से क़दम मिलाती- मैत्रेयी कॉलेज की लाइब्रेरी

पिछले दिनों मुझे बताया गया कि अगले एपिसोड के लिए हम मैत्रेयी कॉलेज की लाइब्रेरी शूट करने जाएंगे। ये सुनकर मेरे ज़हन में कुछ सवाल आए कि एक कॉलेज की लाइब्रेरी क्यों ? दिल्ली में तो बहुत से कॉलेज हैं, तो फिर मैत्रेयी कॉलेज ही क्यों ? पर जब मैं वहाँ पहुँची तो महसूस हुआ कि अगर वहाँ न जाती तो बहुत कुछ मिस कर देती। दरअस्ल जिन दिनों मैं कॉलेज में थी उन दिनों या उसके बाद भी मैत्रेयी कॉलेज कभी भी मेरे आकर्षण का केंद्र नहीं रहा था, न ही वो कभी मेरी "PRIORITY" लिस्ट में शामिल रहा। इसलिए वहाँ जाने के लिए मैं बहुत उत्साहित नहीं थी पर जाना तो था, इसलिए 3 सितम्बर को 5 लोगों की टीम वहाँ के लिए निकल पड़ी। हममें से किसी को भी रास्ता पता नहीं था इसलिए रास्ता भटक गए और फिर पहुँचे "गूगल बाबा" की शरण में। उसके बाद कुछ लोगों से पूछते-पाछते हम कॉलेज पहुँचे तो क़रीब सवा चार बज चुके थे। कॉलेज लगभग ख़ाली था, वहाँ कुछेक स्टूडेंट्स के अलावा लाइब्रेरी का स्टाफ मौजूद था, शायद वो हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे।



अंदर जाकर हम डॉ प्रदीप राय से मिले जो मैत्रेयी कॉलेज में लाइब्रेरियन हैं। पहले ही काफ़ी देर हो चुकी थी इसलिए उन्हें अपना परिचय देकर हम सीधे काम पर लग गए यानी शूट शुरु कर दिया। डॉ प्रदीप ने उस लाइब्रेरी के बारे में जब बताना शुरु किया तो वक़्त बढ़ता ही गया, हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम उन्हें कहाँ रोकें, क्योंकि हमारा सेगमेंट 5 से 7 मिनट तक का ही होता है। ज़्यादा शूट मतलब ज़्यादा एडिटिंग, इसलिए न चाहते हुए भी हमें उन्हें वाइंड-अप का इशारा करना पड़ा। सच कहूँ तो वाक़ई उस लाइब्रेरी के बारे में बताने को बहुत कुछ है। हमारे कॉलेज तकनीकी रुप से बहुत आगे बढ़ गए हैं, अब बहुत सी सुविधाएँ बस एक क्लिक पर मिल जाती हैं। जो आज के दौर में युवा-वर्ग के ज्ञानवर्धन और तरक़्क़ी के लिए वाक़ई बहुत ज़रुरी है।

मैत्रेयी कॉलेज का ये पुस्तकालय सिर्फ़ कॉलेज की छात्राओं और शिक्षकों के लिए ही है, लेकिन शोध करने या किसी ख़ास विषय पर जानकारी लेने के लिए रेफेरेंस के माध्यम से इस पुस्तकालय की सुविधाओं का लाभ दूसरे विद्यार्थी भी उठा सकते हैं। इस पुस्तकालय को मुख्य रुप से तीन भागों में बाँटा गया है:-
Text Books Section, Reference Section और Reading Room Section.

इनके अलावा यहाँ एक बुक बैंक भी है, जहाँ से ग़रीब और ज़रुरतमंद विद्यार्थी किताबें ले सकते हैं। इस लाइब्रेरी में 90,000 से ज़्यादा किताबें हैं। हिंदी इंग्लिश के क़रीब 20 अख़बार और क़रीब 60 जर्नल्स और मैगज़ीन्स विद्यार्थियों को उपलब्ध कराई जाती हैं।


मैत्रेयी कॉलेज की लाइब्रेरी इस मायने में बहुत ख़ास है कि यहाँ दिव्यांगजन की ज़रुरतों को देखते हुए कई सुविधाएं दी गई हैं। यहाँ ग्राउंड फ़्लोर पर एक यूनिट है, जिसमें Lex कैमरा और Jaws टॉकिंग सॉफ्टवेयर और Supernova मैग्नीफायर सॉफ़्टवेयर की मदद से नेत्रहीन और अल्प-दृष्टि वाले विद्यार्थी भी आसानी से किताब पढ़ और समझ सकते हैं। कैमरा के नीचे किताब रख दी जाती है, टॉकिंग सॉफ्टवेयर उसे पढ़ कर सुनाता है और मैग्नीफायर सॉफ्टवेयर शब्दों को बड़ा करके दिखाता है।

शोधार्थियों के लिए भी यहाँ एक कोना अलग से है। ICSSR के तहत एक शोधार्थी थाईलैंड से आई थीं उनकी स्टडी के मुताबिक़ दिल्ली में इंस्टीट्यूशनल रेपोसेट्री सिर्फ़ चार इंस्टीट्यूशंस के पास है और मैत्रेयी कॉलेज दिल्ली में अकेला ऐसा कॉलेज है जिसके पास अपनी एक इंस्टीट्यूशनल रेपोसेट्री है, जिसमें पिछले पैंतीस सालों का सिलेबस संकलित किया गया है।

मैत्रेयी कॉलेज N-List के अंतर्गत रजिस्टर्ड है, इसलिए यहाँ का हर वो विद्यार्थी जिसे कॉलेज की तरफ़ से वैध User Name और पासवर्ड दिया गया है, ई-बुक्स, ई-जर्नल्स और डेटाबेस को एक्सेस कर सकता है। ये कॉलेज "DELNET" का सदस्य भी है जिसके माध्यम से छात्राएँ देश के अन्य पुस्तकालयों के नेटवर्क से जुड़ सकती हैं।  इसका फ़ायदा ये है कि अगर कोई ज़रुरी किताब, जर्नल या लेख कॉलेज की लाइब्रेरी में उपलब्ध नहीं है, तो इस इंटर लाइब्रेरी से उन्हें उपलब्ध कराया जाता है। मैत्रेयी कॉलेज की लाइब्रेरी में बहुत सी दुर्लभ पुस्तकें भी पढ़ने के लिए रखी गई हैं। यहाँ मैंने पंडित जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गाँधी, मोरारजी देसाई जैसी कई मशहूर हस्तियों की स्पीचीस का कलेक्शन भी देखा और बहुत पुराने शब्दकोष और इनसाइक्लोपीडिया भी देखे।




इस पुस्तकालय में और भी बहुत कुछ देखा जिसे शब्दों में बयाँ करना थोड़ा मुश्किल है। वो है यहाँ के सभी कर्मचारियों और सदस्यों का जोश और मेहनत जिसकी वजह से मैत्रेयी कॉलेज की ये लाइब्रेरी वक़्त के क़दम से क़दम मिला कर चल रही है। 

Friday, September 6, 2019

पुस्तकालयों का सफ़र- मारवाड़ी सार्वजनिक पुस्तकालय

पिछले साल एक प्रॉजेक्ट मिला जिसमें मुझे टीवी के लिए हिंदी साहित्य पर एक प्रोग्राम डिज़ाइन करने को कहा गया। उन दिनों यूँ भी कुछ ख़ास काम नहीं था तो मैं बहुत उत्साहित हो गई और क़रीब 15 दिन की दिमागी कसरत के बाद उस कार्यक्रम की स्पष्ट रुपरेखा सामने आ गई। फिर कुछ डिस्कशन और फेर-बदल हुए, और आख़िरकार उसका समुचित प्रारुप तैयार हो गया। साहित्य का प्रोग्राम है तो हमने उसके एक सेगमेंट में दिल्ली की लाइब्रेरीज़ को कवर करने की योजना बनाई। आज के दौर में बहुत से लोगों को ये लगता है कि लाइब्रेरीज़ की कोई ज़रुरत ही नहीं रह गई है, क्योंकि इंटरनेट आपको हर जानकारी मुहैया करा देता है, ख़ासतौर पर "गूगल बाबा" तो हर समस्या का समाधान नज़र आते हैं। ऐसे में इस सेगमेंट के लिए प्रोड्यूसर को कन्विंस करना एक बड़ा काम था पर आख़िरकार वो रिस्क लेने को तैयार हो गए। शुरुआत की गई चाँदनी चौक में बरसों से चल रहे मारवाड़ी पुस्तकालय से, जिसे मारवाड़ी चेरिटेबल ट्रस्ट चलाता है। और एक दिन हम अपनी पूरी टीम के साथ वहाँ पहुँच गए।



वहाँ हमें बहुत अच्छा रेस्पॉन्स मिला। सबसे पहले मुलाक़ात हुई उस समय के प्रधान सुरेश सिंघानिया और कोषाध्यक्ष अशोक तुलस्यान से। जिन्होंने लाइब्रेरी के साथ-साथ पूरे मारवाड़ी समाज और चेरिटेबल ट्रस्ट के बारे में हमें बताया कि किस तरह से मारवाड़ी हॉस्पिटल और स्कूल समाज में अपना योगदान दे रहे हैं। फिर हमारी मुलाक़ात हुई लाइब्रेरी के सचिव राजनारायण सर्राफ़ से जो बहुत ही गर्मजोशी से हमसे मिले और लाइब्रेरी के विषय में और भी कई बातों से उन्होंने हमें अवगत कराया।


उन लोगों से और वहाँ लगे कुछ पोस्टर्स से हमें पता चला कि मारवाड़ी पुस्तकालय को आचार्य चतुरसेन शास्त्री के परामर्श से शुरु किया गया था। स्वतंत्रता सेनानी और समाज सेवक सेठ केदारनाथ गोयनका ने 1915 में विजय दशमी के दिन इसकी स्थापना की थी। सेठ गोयनका महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थे, इसीलिए उन्होंने देश सेवा की ख़ातिर अपना कपड़ों का व्यवसाय बंद कर दिया था। हमें बताया गया कि इस पुस्तकालय का स्वतंत्रता आंदोलन में उल्लेखनीय योगदान रहा है। यहाँ कांग्रेस की गुप्त सभाएं भी हुआ करती थीं। महात्मा गाँधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, मैथिलीशरण गुप्त और हरिवंशराय बच्चन जैसी अनेक महान हस्तियाँ यहाँ आया करती थीं, जिनका हस्त-लेख आज भी यहाँ की विज़िटर्स बुक में सुरक्षित है। उनके अलावा मौजूदा दौर की भी कई जानी-मानी हस्तियाँ यहाँ अक्सर आया करती हैं जिनमें एक ज़माने में दूरदर्शन की न्यूज़ रीडर रह चुकी सरला माहेश्वरी भी शामिल हैं।


इस लाइब्रेरी में हिंदी, उर्दू, इंग्लिश और अन्य विषयों की लगभग 30,000 किताबें, 700 सन्दर्भ ग्रन्थ और 21 दुर्लभ पाण्डुलिपियों के अलावा क़रीब 2000 पत्र-पत्रिकाओं का संग्रह भी है, जिनमें चाँद, सरस्वती, सुधा, हंस जैसी पत्रिकाओं के पुराने अंक भी शामिल हैं। नए ज़माने में इंटरनेट की उपयोगिता को देखते हुए यहाँ ई-बुक्स का भी अच्छा कलेक्शन है। इसके अलावा ये लाइब्रेरी INDEST (इंडियन नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी) सुविधा भी उपलब्ध कराती है, जिसे यहाँ के सदस्य लाइब्रेरी के साथ-साथ घर बैठ कर भी एक्सेस कर सकते हैं। विभिन्न विषयों पर शोध करने वाले छात्र और हिंदी साहित्य में पीएचडी करने वालों के लिए ये पुस्तकालय बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करने वालों को पुस्तकों के साथ-साथ पढ़ने के लिए एक अच्छा माहौल भी मिलता है। 

इस पुस्तकालय को हेरिटेज अवार्ड से नवाज़ा जा चुका है। इस लाइब्रेरी की इमारत को 1994 में हेरिटेज बिल्डिंग घोषित किया गया था, जिसकी वजह है इसका इंटीरियर। ये लाइब्रेरी चाँदनी चौक में हल्दीराम की दुकान के ठीक ऊपर है। जब आप ऊपर चढ़ेंगे तो  पुराने ज़माने के खड़े-ऊँचे ज़ीनों से आपका सामना होगा, जो पुरानी दिल्ली के प्राचीन वास्तु की पहचान हैं। दरअस्ल ये इमारत अपने समय के प्रचलित स्टाइल और एलिमेंट का फ्यूज़न है।

अगर आपको किताबें पढ़ने का शौक़ है और पुरानी इमारतें आपको आकर्षित करती हैं, तो आपको यहाँ कम से कम एक बार ज़रुर जाना चाहिए।  ये लाइब्रेरी मंगलवार से रविवार तक सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक खुली रहती है। ध्यान रखिएगा कि ये सोमवार को बंद रहती है।