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Saturday, January 2, 2021

तीस हज़ारी का इतिहास

किसी भी जगह का पुराना शहर वहां की विरासत को सँजोए रहता है। उसी तरह दिल्ली है, हाँलाकि नई दिल्ली को बसे भी ज़माना हो गया है पर पुरानी दिल्ली वो जगह है जहाँ के चप्पे-चप्पे में दिल्ली के गौरवशाली अतीत के निशान दर्ज हैं, वहीं ऐसी जगह भी हैं जो उस विनाश और तबाही की गवाह हैं जिनसे दिल्ली को दो-चार होना पड़ा। दिल्ली वाले तीस हज़ारी नाम से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं, एक तो कोर्ट की वजह से ये नाम पहले से ही मशहूर था, फिर मेट्रो आने के बाद वहाँ बने मेट्रो-स्टेशन की वजह से भी ये नाम जाना-पहचाना हो गया। 


मगर ये नाम पड़ा कैसे ? पुराने ज़माने में जगहों के नाम या तो वहाँ रहने वालों की तरफ़ इशारा करते थे या वहाँ की किसी ख़ास निशानी या घटना की तरफ़। लेकिन तीस हज़ारी नाम को लेकर इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं। 

दिल्ली के इतिहास पर नज़र डालें तो पता लगता है कि एक ज़माने में वहाँ एक बाग़ हुआ करता था जिसमें तीस हज़ार (शायद सभी या ज़्यादातर नीम के) पेड़ थे। इसी वजह से उसे तीस हज़ारी बाग़ कहा जाता था। जहाँ आज सेंट स्टीफेंस हॉस्पिटल है उसके आस-पास तक ये बाग़ फैला हुआ था। दिल्ली से बाहर जाने वाले और बाहर से दिल्ली आने वाले व्यापारी अपने लाव लश्कर के साथ इस बाग़ में डेरा डालते थे। कहते हैं कि वो बाग़ शाहजहाँ की बेटी जहाँआरा ने लगवाया था, जिसे पेड़-पौधों और क़ुदरत से बहुत लगाव था। लेकिन 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ों ने इस बाग़ के सभी पेड़ कटवा दिए और बाग़ का नामोनिशान मिटा कर उसे एक मैदान में तब्दील कर दिया। बाग़ ही नहीं बल्कि उस इलाक़े के ज़्यादातर पेड़ इसलिए कटवा दिए गए क्योंकि 1857 की लड़ाई में इन्हीं पेड़ों के पीछे छिपकर हिंदुस्तानी सैनिकों ने ब्रिटिशर्स पर वार किया था। तीस हज़ारी बाग़ के उस मैदान में औरंगज़ेब की बेटी ज़ेबुन्निसा और मोहम्मद शाह की बेगम मलका-उज़-ज़मानी की क़ब्र भी थी, मगर जब दिल्ली में रेलगाड़ी आई तो इसके एक बड़े हिस्से में रेल की पटरियाँ बिछा दी गईं। 

सिख इतिहास में एक कहानी मिलती है सरदार बघेल सिंह के बारे में। ये वही बघेल सिंह हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली के प्राचीन गुरुद्वारों की स्थापना उन्होंने ही की थी। ( हाँलाकि हर गुरूद्वारे के नाम की एक अलग कहानी है ) सिख मान्यताओं के अनुसार क़रीब अठारहवीं सदी में सरदार बघेल सिंह अपनी फ़ौज के साथ दिल्ली आए थे लाल क़िले पर चढ़ाई करने। लेकिन तब के बादशाह शाह आलम द्वितीय को इस हमले की ख़बर पहले ही लग चुकी थी तो उसने महीनों की रसद का इंतज़ाम करके क़िले के सारे दरवाज़े बंद कर लिए। तब सरदार बघेल सिंह ने अंदर जाने के लिए दीवार में एक जगह मोहरी / मोरी (hole ) बनाई, इसी से मोरी गेट का नाम पड़ा। और जब वो जीत गए तो जिस जगह पर मिठाई बना कर बाँटी उस जगह को मिठाई का पुल कहा गया। सरदार बघेल सिंह की फ़ौज में तीस हज़ार घुड़सवार थे जो दिल्ली पहुँचने पर इसी तीस हज़ारी बाग़ की जगह पर रुके थे। सिख साहित्य के मुताबिक़ उन तीस हज़ार सैनिकों की वजह से ही उस जगह का नाम तीस हज़ारी पड़ा। हो सकता है ये दोनों बातें सही हों, और ये मात्र संयोग हो कि जिस बाग़ में तीस हज़ार पेड़ थे उसी में तीस हज़ार सिख सैनिक ठहरे। 

इतिहास के बारे में यही बात खटकती है कि जो लिखा गया वो कितना सही था इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगाया जा सकता। लेकिन आज वहां न बाग़ है, न क़ब्र, न ही वहां ठहरे सैनिकों के कोई निशान। भीड़-भाड़ वाले इस इलाक़े में मेट्रो स्टेशन है और अदालत का वो परिसर है जिसका उद्घाटन 1958 में हुआ था। हाँ, ख़ास ये आज भी है, एशिया के सबसे बड़े कोर्ट के रूप में। यहाँ  ४०० कोर्ट रुम के अलावा वक़ीलों के ढेर सारे छोटे-छोटे केबिन हैं, आप वहाँ जायेंगे तो वो एरिया किसी छोटी बस्ती की तरह ही दिखेगा। पर उस पुराने वक़्त की कोई यादगार, कोई झलक नहीं मिलेगी, शायद इसी को बीत जाना कहते हैं, शायद इतिहास ऐसे ही बनते हैं!