Tuesday, April 12, 2022

क़ुतुब मीनार

दिल्ली की सबसे ऊँची ऐतिहासिक मीनार 

2019 में जब मैंने ये ब्लॉग बनाया था तो मंशा यही थी कि इस ब्लॉग के ज़रिए मैं भी दिल्ली के कोने-कोने से वाक़िफ़ हो पाऊँगी। जो जगह पहले से देखी हैं उनकी यादें ताज़ा करुँगी और जहाँ पहले कभी नहीं गई वहाँ भी जाऊँगी। पर ऊपर वाले की मर्ज़ी थी कि कोई कहीं न जाए सब बस घर में बंद होकर रह जाएँ। खैर! अब कोरोना का ख़तरा उतना नहीं है तो मेरी दिल्ली-यात्रा फिर से शुरु हो गई है। कलाम मेमोरियल, उग्रसेन की बावली, कोटला फ़िरोज़शाह के बाद हमरा अगला पड़ाव यूँ तो था सुल्तानपुर बर्ड सेंचुरी लेकिन रास्ता भटक जाने और देर होने की वजह से हम पहुँच गए "क़ुतुब मीनार" 

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क़ुतुब मीनार

क़ुतुब मीनार का नाम पहली बार तब सुना था जब एक दिन चित्रहार में एक गाना आया "दिल का भंवर करे पुकार प्यार का राग सुनो" तब पता चला कि ये गाना क़ुतुब मीनार के अंदर फ़िल्माया गया है। उस दिन ये जानकर बहुत  एक्ससाइटमेंट हुआ था कि क़ुतुबमीनार दिल्ली में ही है और हम उसे देखने जा सकते हैं। उसके बाद शायद स्कूल वाले पिकनिक पर वहाँ ले गए थे पर उसकी कोई याद बाक़ी नहीं है। उस ज़माने में स्कूल वाले पिकनिक पर कुछ गिनी-चुनी जगहों पर ही तो लेकर जाते थे - चिड़ियाघर, लाल क़िला, क़ुतुब मीनार, पुराना क़िला,जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राजघाट जैसी कुछ पर्टिकुलर जगह हुआ करती थीं या फिर म्यूजियम। पापा ने जब दिल्ली सरकार का एग्जाम पास किया तो उनका पहला स्कूल क़ुतुबमीनार के पास ही था, कई सालों तक वो रोज़ सुबह ग़ाज़ियाबाद से ट्रेन पकड़ कर अपने स्कूल जाया करते थे। आज मेट्रो के ज़माने में भी 2 घंटे लग जाते हैं तब तो और भी ज़्यादा समय लगता होगा। क़ुतुब मीनार की जो आख़िरी याद मुझे आती है वो कॉलेज के बाद की है। मेरी एक दोस्त का एग्जाम था तो मैं और पापा उसके साथ गए थे। एग्जाम के बाद हम तीनों क़ुतुब मीनार चले गए थे घर से खाना पैक करा के ले गए थे वो हमने वहीं खाया था। तब वहाँ खाने-पीने का सामान ले जाने की इजाज़त थी, मगर अब नहीं है। शायद कोरोना की वजह से..... एक तरह से ठीक भी है क्योंकि हमारी आदतें आज भी बदली कहाँ है, जहाँ मौक़ा मिलता है गंदगी फैला देते हैं। 

पहले टिकट लगता था या नहीं ये तो मुझे याद नहीं है मगर अब टिकट लगता है और जो टिकट काउंटर है वो मुख्य स्मारक के सामने की तरफ है वहाँ भी कुछ पुराने अवशेष दिख जाते हैं। पहले क़ुतुब में आने-जाने का एक ही रास्ता था,अब एंट्री और एग्जिट अलग-अलग बना दी गई हैं। क़ुतुब में अगर मुझे कुछ बहुत अच्छे से याद है तो वो है - लोहे की लाट जिसका निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कराया था। इस स्तम्भ से सट कर लोग पीठ की तरफ़ से दोनों हाथ मिलाने की कोशिश करते थे ताकि ये जान सकें कि वो क़िस्मतवाले हैं या नहीं। ऐसा विश्वास क्यों और कैसे बना इस बारे में कोई नहीं जानता था मगर सभी एक कोशिश ज़रुर करते थे। मुझे जहाँ तक याद है मेरे हाथ कभी नहीं मिले थे और इस बार अपना भाग्य आज़माने का मौक़ा नहीं मिला क्योंकि शुद्ध लोहे से बनी उस लाट को अब कोई छू भी नहीं सकता। उसके आस-पास जाल लगा दिया गया है। हाँलाकि उस पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में जो कुछ उकेरा गया था वो पूरा तो नहीं पर काफ़ी हद तक अभी भी देखा जा सकता है। उस पर जो कुछ भी उकेरा गया है उसे संस्कृत और इंग्लिश, हिंदी अनुवाद के साथ गलियारे में लगे संगमरमर के पत्थरों पर साफ़ तौर पर पढ़ा जा सकता है। 

Iron Pillar at Qutub Minar, lauh stambh
लौह स्तम्भ 

Translation of the Inscription on the Pillar
स्तम्भ पर उल्लिखित जानकारी का अनुवाद 

क्या सचमुच क़ुतुब मीनार झुक रही है ?

Instrument to check the ratio of tilted qutub minar
क़ुतुब मीनार के झुकाव को जाँचने का यंत्र 

पीसा की झुकती मीनार के बारे में तो हम सब ने सुना है लेकिन उस दिन ये जानकर बड़ा अचरज हुआ कि क़ुतुब मीनार भी लगातार एक दिशा में झुकती जा रही है। क्या सचमुच क़ुतुब मीनार झुक रही है ? ये प्रश्न कुछ साल पहले संसद में भी उठ चुका है। ए एस आई द्वारा 2005 में एक सर्वेक्षण कराया गया था, जिसमें ये बात सामने आई थी कि 1984 से 2005 के बीच क़ुतुब मीनार दक्षिण-पश्चिम की दिशा में झुकी है, हाँलाकि उसके झुकने की रफ़्तार बहुत ही धीमी है। किसी सरकारी विभाग की तरफ़ से वहाँ कुछ लोग मौजूद थे जो कुछ इंस्ट्रूमेंट्स के माध्यम से क़ुतुब मीनार के झुकाव पर नज़र रख रहे थे, लेकिन हमारी नज़र थी वहाँ की ख़ूबसूरती पर। 

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क़ुतुब मीनार 

मुझे तो कभी क़ुतुब मीनार में ऊपर जाने का मौक़ा नहीं मिला पर मेरी मम्मी बताती हैं कि उनके वक़्त में तीन मंज़िल तक चढ़ने की इजाज़त थी। वैसे इस मीनार में 379 सीढ़ियाँ हैं, लेकिन अब चढ़ना तो दूर मीनार को छूना भी मुश्किल है, क्योंकि उसके चारों तरफ़ भी ग्रिल लगा दी गई है। पर उसकी कारीगरी देख कर सचमुच बहुत हैरत होती है। सोचती हूँ कुतुबुद्दीन ऐबक ने उस समय दुनिया की किस ईमारत से प्रेरणा लेकर इस मीनार की कल्पना की होगी ! और जब उसकी कल्पना को इल्तुतमिश अमली जामा पहना रहा था तो ज़ाहिर है उसे पूरा होते हुए देखना भी ज़रुर चाहता होगा ! शायद इसीलिए उसकी अधूरी ख़्वाहिश के साथ उसका मक़बरा यहीं बना दिया गया हो ! जहाँ ये मक़बरा है वो जगह भी बेहद ख़ूबसूरत है, सफ़ेद संगमरमर से बना वो मक़बरा बहुत बड़ा है और उसके चारों तरफ़ की दीवारों पर भी ख़ूबसूरत नक्काशी की गई है। ये मक़बरा चारों ओर दीवारों से तो घिरा है मगर इसकी छत नहीं है, कहते हैं छत बनाने की कोशिश की गई थी मगर छत टिकी ही नहीं इसलिए ये मक़बरा बिना छत का ही रह गया। 

Tomb of Iltutmish, qutub minar complex
इल्तुतमिश का मक़बरा 

क़ुतुब मीनार युनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल है और 238 फ़ीट की ऊँचाई के साथ दिल्ली का सबसे ऊंचा ऐतिहासिक स्मारक है। क़ुतुब मीनार परिसर भी काफ़ी बड़ा है जहाँ एंट्री लेते ही मुग़ल बगीचा, मुग़ल मस्जिद और मुग़ल सराय का बोर्ड दीखता है। लेकिन यहाँ का मुग़ल गार्डन बहुत छोटा सा है जिसका एक हिस्सा बस टूटा-फूटा सामान रखने के काम आता है। हां एक बड़ा सा बहुत पुराना बरगद का पेड़ ज़रुर ध्यान खींचता है वर्ना वहाँ जाकर गार्डन वाली फ़ीलिंग नहीं आती है। सराय के कमरों में ताला लगा है बस मस्जिद है जहाँ अभी भी नमाज़ पढ़ी जाती है। पहले जब कभी भी क़ुतुब मीनार गई बस यूँ देखकर इधर उधर बैठ कर वापस आ गई। पहले कभी बहुत बारीक़ी से देखने का मौक़ा नहीं मिला था या कहें तब बारीकियों को जानने में इतनी रुचि नहीं थी। लेकिन इस बार कोना-कोना छान मारा। 

Tomb of Imam Zamin,Qutub Minar Delhi
इमाम ज़ामिन का मक़बरा 

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अलाई मीनार 

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क़ुव्वत-उल-इस्लाम-मस्जिद 
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सेन्डर्सन की सूर्य घड़ी 

इमाम ज़ामिन का मक़बरा, अलाई दरवाज़ा, अलाई मीनार, इल्तुतमिश का मक़बरा, क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद, खिलजी का मदरसा, मक़बरा और एक कुएँ के अलावा क़ब्रिस्तान भी। साथ ही गार्डन एरिया में लगी सेंडरसन की सन-क्लॉक और मेजर स्मिथ की छतरी भी, जिसके उखड़े और टूटे हुए पत्थरों को बदला जा रहा था। कुँआ जो पूरा ढका हुआ था क्योंकि उसकी मरम्मत का काम चल रहा था। हाँलाकि वहाँ खड़ा मज़दूर हमारी रिक्वेस्ट पर हमें ऊपर चढ़ कर देखने को मान गया था मगर तभी गार्ड ने आकर उसे भी डांटा और हमें भी। 

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क़ुतुब मीनार 

सोच के देखिए कल्पना किसी की, सपना किसी का, कारीगरी किसी और ही की। शुरुआत किसी ने करवाई, आगे बढ़ाया किसी और ने और सपने को साकार किसी और ने किया। सदियों बाद आज देखने वाले वो हैं जिन्होंने इनमें से किसी को नहीं देखा, देखी तो उन की कल्पना, उनकी कारीगरी और इसी तरह सदियों पुरानी और नई पीढ़ियाँ एक दूसरे से जुड़ गईं, है न कमाल की बात ! 

चलते चलते एक और बात बताना चाहूँगी आपको अगर आप अपनी गाड़ी या कैब से गए हैं तब तो कोई बात नहीं लेकिन अगर आप मेट्रो से वापसी करेंगे तो आपको मेट्रो तक ऑटो लेना पड़ेगा। शेयरिंग ऑटो चलते हैं लेकिन आप अकेले हायर करेंगे तो ऑटो वाला 50 रुपए माँगेगा और कहेगा कि आपको क़ुतुब मीनार की मार्केट भी घुमाएँगे बस आपको दस मिनट वहाँ गुज़ारने होंगे। दरअस्ल वो मार्केट नहीं है बल्कि दिल्ली-हाट का एक छोटा सा एम्पोरियम है जहाँ 10 मिनट गुज़ारना पूरे सफ़र का सबसे मुश्किल काम था। हमने तो बस जिज्ञासा में वो जगह देखने के लिए हाँ कर दी थी, आप न देखना चाहें तो इस बात को ध्यान में रखियेगा। 

Sunday, March 27, 2022

दिल्ली की भीड़ में चुपचाप सा एक स्मारक

डॉ कलाम स्मारक 

क्या आप जानते हैं कि दिल्ली में भारत के मिसाइल मैन डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम का एक स्मारक यानी मेमोरियल है ? अगर नहीं जानते हैं तो आप ऐसे अकेले शख़्स नहीं हैं क्योंकि जहाँ ये समारक है उस जगह मैं रेगुलर बेसिस पे जाती रहती हूँ पर कभी पता ही नहीं चला कि वहाँ पर डॉ कलाम की यादों को समेटे कोई एक छोटी सी जगह भी है । इसकी वजह शायद पब्लिसिटी की कमी है क्योंकि वहां उनके जो पोस्टर्स लगे हैं वो काफ़ी छोटे हैं और एंट्री करते हुए भीड़ में कहीं छुप जाते हैं, उन पर किसी की नज़र ही नहीं पड़ती।

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अगर आप दिल्ली हाट INA जाते हों या फ्यूचर में जाने की इच्छा रखते हों तो आप डॉ कलाम मेमोरियल भी जा सकते हैं। दिल्ली हाट के गेट नं 2 से तो एकदम फ्री एंट्री हैं लेकिन आप अगर दिल्ली हाट जा रहे हैं तो एंट्री लेते ही नाक की सीध में चलते जाएँ। लास्ट में जहाँ स्टेज हैं उससे पहले सीधे हाथ की तरफ़ स्टाल्स लगते हैं बस वहीं मुड़ जाएँ और आगे बढ़ते रहे आप कलाम मेमोरियल तक पहुँच जाएंगे, जिस का उद्घाटन 30 जुलाई 2016 को हुआ था। 

बहुत कम लोग होते हैं जो सबके दिलों में बसते हैं, जिनका सभी सम्मान करते हैं। ऐसी ही हस्ती थे डॉ कलाम जिनसे कभी न कभी सभी प्रेरित हुए हैं और मेरी तो जिससे भी बात हुई है उसे डॉ कलाम की तारीफ़ करते हुए ही पाया है। उनके जैसे शानदार इंसान को थोड़ा नज़दीक़ से जानने के लिए भी इस मेमोरियल को देखना ज़रुरी हो जाता है।  

कलाम मेमोरियल में एंट्री करते ही सबसे पहले आपको एक बड़ा सा स्टेचू नज़र आएगा जिसमें कुछ बच्चों के साथ डॉ कलाम खड़े हैं। अंदर जाते ही हर दीवार पर बड़े-बड़े होर्डिंग्स आपको दिख जाएंगे जिन पर डॉ कलाम का जीवन परिचय और उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियाँ लिखी हैं। साथ ही एक आवाज़ सुनाई देती हैं जो throughout आपके साथ उस मेमोरियल का सफ़र तय करती है, उस A/V में कुछ बच्चे डॉ कलाम के विषय में अपने विचार साँझा कर रहे हैं।

डॉ कलाम की जयंती और कुछ विशेष अवसरों पर डॉ कलाम फाउंडेशन की तरफ़ से यहाँ ड्राइंग कम्पटीशन का आयोजन किया जाता है जिसमें अलग-अलग स्कूलों से चुने हुए बच्चे आते हैं। उन्हीं बच्चों द्वारा बनाए गए कुछ पोर्ट्रेट यहाँ आप देख सकते हैं। स्टिप्लिंग, पेंसिल शेडिंग, फ़्लैट पोस्टर कलर्स से बने ये पोर्ट्रेट देखकर बच्चों के हुनर का पता चलता है। एक पोर्ट्रेट ऐसा है जिसे आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि उस पूरे पोर्ट्रेट में तमिल में उनका नाम लिखा है। कुछ और पेंटिंग्स हैं जो अलग-अलग कलाकारों ने बनाई हैं। 

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थोड़ा आगे जाएँगे तो जितने भी पिलर्स हैं वहां डॉ कलाम के कोट्स पढ़ने को मिलेंगे। और फिर शुरु होगी वो यात्रा जहाँ आप महसूस कर पाएँगे कि एक इतना बड़ा इंसान कितनी साधारण ज़िंदगी जीता था। शायद इसीलिए उन्हें पीपल्स प्रेजिडेंट कहा जाता है। उनके मॉर्निंग वॉक की टी-शर्ट, दो सूट, चश्मा उनसे जुड़ी बहुत सी यादगार चीज़ें यहाँ देखने को मिल जाती हैं। किताबों की तो कई अलमारियां हैं। मैं यहाँ जितना भी बता दूँ कम है क्योंकि कुछ चीज़ों को सामने देखकर ही महसूस किया जा सकता है। 

यूँ तो हमारे देश में म्यूजियम या मेमोरियल जाने का कल्चर नहीं है ख़ासतौर पर दिल्ली जैसी जगहों पर। अगर कभी गए भी तो सिर्फ़ बच्चों के लिए वो भी तब जब कोई स्कूल प्रोजेक्ट हुआ या जब ऐसी जगहों पर जाने में ख़ुद बच्चे या उसके माता-पिता की रुचि हो, वर्ना लोग बच्चों को भी मॉल ले जाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। शायद इसीलिए स्मारक या संग्रहालय आमतौर पर ख़ाली रहते हैं। लेकिन कभी ऐसी जगहों पर जाकर देखिए, वहाँ की वाइब्रेशंस को महसूस कीजिए। और एक छोटी सी बात ये कि जब हम हम ऐसी जगहों पर जाते हैं तो अक्सर चुपचाप देखकर वापस आ जाते हैं, चाहे कुछ सवाल अंदर ही अंदर उमड़-घुमड़ रहे हों, पूछते नहीं हैं तो मेरी सलाह यही है कि अगर किसी पेंटिंग या किसी और चीज़ के बारे में कोई सवाल ज़हन में आये तो वहाँ बैठे किसी व्यक्ति से ज़रुर पूछ लें अगर वो व्यक्ति नहीं बता सकेगा तो किसी ऐसे से मिलवा देगा तो बता सकता हो। 

कितना भाग दौड़ रहे हैं हम चाहे वो सोशल मीडिया पर चले जाएँ या टीवी पर हर जगह लोग बस एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहते हैं। कभी-कभी ऐसी जगहें आपको अनजाने एक सुकून दे जाती हैं। ख़ासतौर पर अगर आप डॉ कलाम के प्रशंसक है ( शायद ही कोई होगा जो उनका प्रशंसक न हो ) तो मेरी राय में आपको यहाँ ज़रुर जाना चाहिए। सोमवार को छोड़कर सुबह 11 बजे से शाम 7 बजे तक कलाम मेमोरियल खुला रहता है। अंदर वीडियोग्राफी की इजाज़त नहीं है, हाँ आप फ़ोटोज़ के ज़रिए कुछ यादें इकठ्ठा कर सकते हैं। 

Kalam Memorial, statue of Dr APJ Abdul kalam

Friday, March 25, 2022

सूरजकुंड क्राफ़्ट मेला 2022 अपने कुछ बदलावों के बावजूद बहुत ही ख़ास है

कॉलेज के ज़माने से सूरजकुंड मेला मेरा फ़ेवरेट है, जब-जब भी संभव था मैं वहाँ गई। 2020 में जब कोरोना की शुरुआत हुई थी तब तक ये मेला फ़रवरी के महीने में लगा करता था, इसीलिए 2020 में लोग इस मेले का आनंद उठा पाए थे। उसके बाद से तो कोरोना ने सब कुछ बदल दिया, जिनमें दिल्ली और उसके आस-पास लगने वाले मेले भी शामिल हैं। इसीलिए इस बार सूरजकुंड क्राफ़्ट मेला एक-डेढ़ महीना देरी से शुरु हुआ है। एक तो इस बार गर्मियां कुछ जल्दी ही अवतरित हो गई हैं दूसरा मेले में एंट्री का वक़्त भी वो कर दिया गया है जब सूरज की तपिश अपने उरुज पर होती है, दोपहर 12:30 बजे। टिकट का दाम भी बढ़ गया है, पहले 80 रुपए हुआ करता था अब 120 रुपए  है लेकिन बुज़ुर्गों और विद्यार्थियों को रिबेट दी गई है। ख़ैर ! एक घंटा इंतज़ार के बाद जब एंट्री की तो लोक संगीत की धुन, और लगातार होती अनाउंसमेंट सुनकर इतनी तेज़ धूप में भी बहुत सुकून मिला। 

Surajkund Craft Mela, Entry Gate
एंट्री गेट - सूरजकुंड 

अंदर जाते ही वही पुराना माहौल, वही मिटटी की ख़ुशबू, वही संगीत कहीं तुम्बा और बीन बज रही है और कहीं ढोल की धमक, ये सब सुनकर आप नाचे न नाचें लेकिन थिरकने ज़रुर लगते हैं। रंग-बिरंगी पोशाकों से सजे लोक-कलाकार आपको फ़ोन या कैमरा से रिकॉर्डिंग करते देखकर और ज़्यादा जोश में आ जाते हैं। सच कहूं तो वहाँ मौजूद सभी लोगों को देखकर ऐसा लगा जैसे बहुत दिनों से बंद परिंदों को खुला आसमान मिल गया हो। हर चेहरे पे ख़ुशी थी लेकिन सबसे ज़्यादा ख़ुशी थी उज्बेकिस्तान से आए मेहमानों के चेहरों पर। वो लोग बस हँस रहे थे और इतने पॉज़िटिव थे कि उनके जज़्बे, उनके चेहरों को देखकर वहाँ मौजूद सभी लोगों के चेहरों पर स्माइल आ जाती थी। उनमें से किसी को हिंदी नहीं आती लेकिन शायद किसी से रुपयों के बारे में नया-नया सीखा था तो एक उज्बेक स्टाल पर जब किसी ने पुछा "How Much" तो उसने कहा - "चार हज़ार दुइ सो" और कहकर ख़ुद ही बहुत ज़ोर से हँस दिया। मेरी कुछ लोगों से बात हुई और जब मैंने उन्हें appreciate किया तो एक उज़बेक महिला बहुत ज़्यादा ख़ुश होकर बोलीं - yeeee !! We enjoy every moment of life . ऐसी जगहों पर जाकर एक फ़ायदा ज़रुर होता है कि आप दूसरे देशों की संस्कृति को जान पाते हैं, नए-नए लोगों से मुलाक़ात होती है और बहुत कुछ सीखने को मिलता है और सबसे बड़ी बात आप अपनी रुटीन लाइफ से अलग हटकर फ़्रेश फ़ील कर पाते हैं।  

Guest Country Uzbekistan, Surajkund mela 2022

सूरजकुंड का क्राफ़्ट मेला में इस बार 30 से ज़्यादा देश भाग ले रहे हैं जम्मू-कश्मीर थीम राज्य है और हर बार की तरह इस बार भी मेला बहुत ही मनमोहक है। कहीं बंगाल के प्रसिद्ध मुखौटे आपको अपनी तरफ़ खींचते हैं तो कहीं टेराकोटा से बने खिलोने, प्लांटर्स। एक स्टार्टअप स्टाल पर ऐसी डायरी देखने को मिली जो बीजों से बनी थी, जब वो डायरी भर जाए तो आप उसके पेज के टुकड़े करके मिटटी में दबा दें तो उसमें से अलग-अलग क़िस्म के फूलों के पौधे निकलेंगे। एक जगह प्लास्टिक की ऐसी डायरी थी जो चॉकलेट की शेप में थी और उससे चॉकलेट की ख़ुशबू भी आ रही थी। पुराने टायर से बने मूढ़े भी कई जगह दिखे, कपड़ों और राजस्थानी, गुजराती जूतियों की तो भरमार थी। एक जगह एक अनोखी सॉफ्टी दिखाई दी। 


सूरजकुंड में अलग-अलग स्टेट्स के क्राफ़्ट आइटम्स आपको अपनी तरफ़ खींचते तो ज़रुर हैं मगर उनकी आसमान छूती क़ीमत सुनकर उन्हें ख़रीदना सभी के लिए मुमकिन नहीं हो पाता। कोरोना के बाद हालात भी ऐसे हो गए हैं कि हर सामान की क़ीमत बढ़ गई है और लोगों के पास पैसों की कमी है। शायद इसलिए मेले में भीड़ तो बहुत थी मगर ख़रीदार कम थे। 





मेला देखने आये लोगों के मनोरंजन का पूरा ख़याल रखा गया है। मैजिक शो, लाइव कॉन्सर्ट, विदेशी कलाकारों के नृत्य-संगीत के कार्यक्रम सभी मेला देखने आए लोगों को ठिठक कर देखने सुनने पर मजबूर कर देते हैं। सेल्फ़ी स्पॉट्स जगह-जगह हैं। मेले के आख़िर में जाते हैं तो एक रंगघर बना हुआ है उससे पहले एक टूटे-फूटे पहाड़ पर एक देवी की मूर्ति निकलती दिखती है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे वो एक चट्टान को काट कर बनाई गई होगी और शायद काफ़ी पुरानी भी होगी मगर उसके बारे में कोई जानकारी हासिल नहीं हो पाई। उसके अलावा जगह-जगह पुराने मंदिर या पंडाल बने है जहाँ लोग फ़ोटो खींचते दिख जाते हैं।

सूरजकुंड में यूँ तो खाने-पीने की बहुत वेराइटी मिल जाती है राजस्थान, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर के अलावा साउथ इंडियन और फ़ास्ट फ़ूड आइटम्स भी मिलते हैं। चुस्की, नीम्बू-लेमन, चाट-पकौड़ी के स्टाल्स भी हैं मगर मुझे ऐसा लगता है कि पहले के मुक़ाबले में खाने के स्वाद में काफ़ी कमी आई है। लेकिन एक दिन के लिए ट्राय करने में कोई बुराई भी नहीं है। 

चलते-चलते आपको बता दूँ कि 19 मार्च 2022 से शुरू हुआ सूरजकुंड क्राफ़्ट मेला 4 अप्रैल 2022 तक चलेगा। टिकट आप ऑनलाइन भी ले सकते हैं और Paytm से भी। अगर वहाँ जाकर लेना चाहते हैं तो बहुत से काउंटर्स हैं आपको कोई मुश्किल नहीं होगी। हम जब बाहर एंट्री के लिए इंतज़ार कर रहे थे तो वहाँ बैठे पुलिसवालों से बातचीत में पता चला कि इस साल से ये मेला साल में दो बार लगाए जाने की तैयारी चल रही है लेकिन वो ये नहीं बता पाए कि कब-कब लगाया जाएगा। जब भी लगेगा ख़बर मिल ही जाएगी वैसे भी घूमने और ख़रीदारी के शौक़ीनों के लिए तो ये एक अच्छी ख़बर ही है। बस दुआ कीजिए कि कोरोना की चौथी लहर न आए और ज़िंदगी फिर से कमरों में बंद रहने को मजबूर न करे ! सूरजकुंड क्राफ़्ट मेला 2022 

Sunday, March 20, 2022

रहस्यमयी कहानियों के बीच खड़ी एक पुरानी बावली

उग्रसेन की बावली

जब फिल्म रंग दे बसंती आई थी तो हर किसी के मन में ये सवाल उठा था कि वो जगह कौन सी है जहाँ वो सभी दोस्त सीढ़ियों पर बैठ कर मस्ती करते हैं, पानी में डुबकी लगाते हैं। उस जगह के लिए अचानक लोगों के मन में एक जिज्ञासा जाग उठी थी। बहुत से लोगों ने कहा कि वो उग्रसेन की बावली है (हाँलाकि वो नाहरगढ़ का क़िला था ) मगर तब उग्रसेन की बावली का नाम बहुत ज़्यादा चर्चा में आ गया था। उस वक़्त मैंने तय कर लिया था कि जाकर ज़रुर देखूंगी मगर फ़िल्म रिलीज़ हुए सालों गुज़र गए लोग शायद उस फ़िल्म का नाम भी भूल गए और उसके बाद झूम बराबर झूम, पी के, सुल्तान, शुभ मंगल सावधान जैसी फ़िल्मों में उग्रसेन / अग्रसेन की बावली दिखाई गई पर मैं उस बावली को देखने नहीं जा पाई, सालों बाद अब जाकर ये मौक़ा मिला। 

ugrasen ki baoli name plate, new delhi

दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस से थोड़ा पहले कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर दीवानचंद के पास एक छोटी सी गली में है - उग्रसेन की बावली। उस जगह से मैं कई दफ़ा गुज़री हूँ मगर पता ही नहीं था कि वहाँ किसी गली में वो जगह है जहाँ मैं बरसों से जाना चाहती थी। दिल्ली के कोने-कोने में ऐसी अनोखी विरासतें हैं और हम जैसे लोग अक्सर वहां से गुज़रते भी हैं मगर जान ही नहीं पाते कि वहीं पास में कहीं कोई खंडहर या पुरानी भूली-बिसरी ईमारत भी है।

Entry Gate Of Ugrasen Ki Baoli, new delhi
मुख्य प्रवेश द्वार 

जब उस गली में मुड़ते हैं तो दीवारों पर बहुत ही ख़ूबसूरत चित्र (ग्रेफिटी ) देखने को मिलते हैं जहाँ आप फ़ोटो भी ले सकते हैं। सीधे हाथ की तरफ़ एक गेट है उस में एंटर करने से पहले ही पुराने ज़माने के पत्थरों का फ़र्श दिखाई दे जाता है और एक पुराना पेड़। सीधे हाथ की तरफ़ दो लाल पत्थरों की शिलाओं पर बावली से जुड़ी जानकारी उकेरी गई है। वहीं हैं चंद सीढ़ियाँ और जैसे ही सीढ़ियाँ चढ़ना ख़त्म होता है तो बाएँ हाथ पर नीचे उतरने के लिए बहुत सी सीढ़ियां इंतज़ार करती दिखाई देती हैं, बस यही है बावली। सीढ़ियों के दोनों तरफ़ मोटी दीवारों में बड़े-बड़े आले बने हुए हैं, कुछ ऐसे हैं जिसमें दो लोग आराम से खड़े हो सकते हैं, कुछ बहुत संकरे। ध्यान से देखें तो  अंदर कहीं-कहीं लोहे की सलाखों वाले दरवाज़े दिखाई देते हैं। मगर ये पता नहीं चल पाया कि उनका इस्तेमाल किसलिए होता रहा होगा। क्योंकि वहाँ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो उस बावली के बारे में कोई सटीक जानकारी दे सके। बावली में पानी भी बहुत थोड़ा था, गंदला भी था तो काला दिखाई दे रहा था या हो सकता है काला ही हो। कोई 40-50 सीढ़ियाँ उतरने के बाद एक जगह रस्सी से रोक लगा रखी है उससे नीचे जाने की इजाज़त नहीं है।लेकिन जब सीढ़ियों पर बैठकर सामने देखते हैं तो उन सारी ऐतिहासिक फ़िल्मों के दृश्य याद आने लगते हैं जिनमें ऐसी जगहें पुरानी शान-ओ-शौकत के साथ दिखाई जाती हैं। और एक अजीब सा सम्मोहन जाग जाता है, अंदर जाने की इच्छा भी होती है पर हम ठहरे आम लोग हमें परमिशन मिलना आसान कहाँ है ? 

वैसे भी इस जगह का नाम दिल्ली के टॉप मोस्ट हॉन्टेड प्लेस में आता है। माना जाता है कि यहाँ भूत-प्रेत-आत्माओं का निवास है। ऐसा कब से और क्यों माना जा रहा है ये किसी को नहीं पता। पर शाम 6 बजे के बाद इसे बंद कर दिया जाता है और किसी को प्रवेश की इजाज़त नहीं दी जाती। ये अफ़वाहें इस बावली को और भी रहस्मयी और रोचक बना देती हैं। वहाँ सीढ़ियों पर बैठे-बैठे उस बावली को ध्यान से देखते हुए नज़रें कहीं बहुत अंदर तक जा रही थी, जितना ज़्यादा साफ़ दिखाई देता जा रहा था उतने ही सवाल ज़हन में उठने लगे थे। मैं इन्हीं सवालों और ख़यालों में खोई थी कि अचानक पंख फड़फड़ाने की आवाज़ से ध्यान टूटा तो देखा आसमान में ढेर सारे कबूतरों ने एक साथ उड़ान भरी और फिर तितर-बितर हो गए और हर थोड़ी-थोड़ी देर बाद ऐसा हो रहा था। दरअसल सीढियों के अगल - बगल जो आले बने हुए हैं उनमें अब कबूतरों ने भी आशियाने बना लिए हैं। एक दीवार में ईंट जितने बड़े गैप में एक कबूतर को छिपकर बैठे देखा तो मैंने सोचा अपने फ़ोन के कैमरा में उसे क़ैद कर लूँ पर मेरे फ़ोन का मेगापिक्सल मेरी आँखों से काफ़ी कम निकला इसलिए पिक्चर में अँधेरे के अलावा कुछ नहीं आया।

Ugrsen ki Baoli, Agrsen ki Baoli
उग्रसेन की बावली 

उग्रसेन की बावली जिसे अक्सर लोग अग्रसेन की बावली कहते हैं, Archeological सर्वे ऑफ़ इंडिया द्वारा संरक्षित स्मारक है। पुराने ज़माने में बरसात के पानी को संरक्षित करने के जो बहुत से तरीक़े हुआ करते थे बावली उनमें से एक है, एक तरह का कुँआ जिसमें आप सीढ़ियां उतर कर जा सकते हैं। ये एक संरक्षित ईमारत है शायद इसीलिए दिल्ली की बाक़ी बवालियों से इसकी हालत काफ़ी बेहतर है। वहाँ लगे बोर्ड के अनुसार इसका निर्माण अग्रवाल समुदाय के पूर्वज राजा उग्रसेन ने करवाया था। एक मान्यता ये है कि मुख्यतः ये महाभारत काल में राजा उग्रसेन ने बनवाई थी बाद में इसका पुनर्निर्माण अग्रवाल समाज के राजा उग्रसेन ने कराया। लेकिन इसकी स्थापत्य कला को देखते हुए ये माना जाता है कि ये तुग़लक या लोदी काल में बनी होगी। 

जब सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर पहुंचे थे तो दाएँ हाथ की तरफ़ भी एक छोटी सी ईमारत थी, वो क्या थी पता नहीं ! वहां भी जाने की इजाज़त नहीं थी हांलाकि मैंने गार्ड से पूछकर छोटा सा वीडियो तो बना लिया था मगर ये पता नहीं चला कि वो क्या है। बाहर लगे बोर्ड पर मौजूद जानकारी के मुताबिक़ वहाँ एक मस्जिद भी है, तो हो सकता है ये वो ही  मस्जिद हो ! जब हम वहाँ पहुंचे थे तो काफी भीड़ थी, कुछ साउथ इंडियन स्टूडेंट्स अपने टीचर के साथ आए हुए थे। दो ट्विन्स बच्चियाँ बहुत एन्जॉय कर रही थीं, कुछ ग्रुप्स थे और ज़ाहिर है कुछ कपल्स भी थे। लेकिन अब जब दोबारा फोटोज़ और वीडियोज़ देख रही हूँ तो लग रहा है जैसे वहाँ कोई और था ही नहीं। क़रीब आधा घंटा वहाँ बैठने के बाद हम वहाँ से निकल तो आए, लेकिन उस जगह से जुड़ी कुछ कहानियाँ दिल में बसी रह गईं। 

Friday, January 7, 2022

पुरानी दिल्ली की हवेलियों की बनावट

पहले ये कहा जाता था कि बेवक़ूफ़ लोग घर बनाते हैं और समझदार उनमें रहते हैं। आजकल का सच ये है कि जिनके पास दौलत है वो लोग घर बनाते हैं बेचते हैं और जो वो दौलत कमाने की क्षमता रखते हैं वो घर ख़रीदते हैं और उनमें रहने वाले ज़्यादातर लोग वो होते हैं जो अपने घर के सपने को पूरा करने के लिए सालों तक चलने वाले क़र्ज़ में डूब जाते हैं। लेकिन इस सच्चाई को तो कोई नहीं नकार सकता कि अपना घर बनाना हर इंसान का सबसे बड़ा ख़्वाब होता है और दिल्ली में घर हो तो आप अचानक बहुत इज़्ज़तदार हो जाते हैं। असलियत आपको ही पता होती है कि आपने क्या-क्या पापड़ बेले, कैसी-कैसी नसीहतें सुनी और घर बनाते हुए क्या-क्या ग़लतियाँ कीं। क्योंकि सिर्फ़ घर बनाना ही काफ़ी नहीं होता वो मज़बूत और सुरक्षित भी होने चाहिए। 

अभी कुछ दिन पहले एक वीडियो देखा जिसमें बर्मिंघम में घर बनने के प्रोसेस को दिखाया था, क्या मटीरियल इस्तेमाल किया जाता है और स्ट्रक्चर कैसा होता है। उस वीडियो को देखकर मुझे बहुत हैरानी हुई क्योंकि जो हमारे पुराने तरीक़े थे और जिन्हें हम छोड़ चुके हैं, उन्हीं के इस्तेमाल से बाहर के देशों में एक मज़बूत घर बनाया जा रहा है। (पता नहीं शुरु से वही तरीक़ा इस्तेमाल किया जाता रहा है या ये वहाँ की मॉडर्न टेक्नोलॉजी है )

पुरानी दिल्ली की हवेलियों को अगर आपने उनके पुराने स्वरुप में देखा हो तो आपको पता होगा कि उन हवेलियों में लेंटर नहीं होता था बल्कि छत बनाने के लिए कड़ियों और पटिया का इस्तेमाल किया जाता था। वहाँ क़रीब एक-डेढ़ दशक पहले जब तक तक फ़्लैट्स बनने शुरू नहीं हुए थे यही चलन था। और पुरानी दिल्ली वाले कॉलोनी में रहने वालों को हमेशा यही सलाह देते थे कि कड़ियों वाली छत डलवाओ, पटिया डलवाओ, वो ज़्यादा मज़बूत होती है। मगर उन पुरानी हवेलियों में बरसात के दिनों में कभी-कभार छत से पानी टपकने लगता था इसीलिए लोग उस सलाह को नज़अंदाज़ कर देते थे। कड़ियाँ घर की ख़ूबसूरती में दाग़ की तरह लगती थीं इसीलिए हमारी कॉलोनियों में लेंटर वाली छत पड़ती है, जिसमें POP चार चाँद लगा देता है। आजकल तो छतों के इतने डिज़ाइन आ गए हैं कि जिसके पास जितना पैसा हो वो उतनी ख़ूबसूरत छत बनवा सकता है। जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा पर डालने के लिए गुड़ होना भी तो चाहिए।  

खैर ! बर्मिंघम के घर की बात करते हैं वहाँ छत कड़ियों और टाइलों पर ही टिकी होती है जिन्हें फोम और ऐक्रेलिक शीट की लेयर्स से कवर किया जाता है और इस तरह वो छत न तो चूती है न ही जल्दी गर्म होती है। और उतनी ही ख़ूबसूरत दिखती है जितनी कोई लेंटर वाली छत। 

अपने यहाँ पुरानी कॉलोनियों में चले जाएँ तो जो बहुत पुराने घर बने हुए हैं या जिन्हें ठीक से नहीं बनाया गया है,  उनके फ़र्श तक में सीलन आ जाती है। बरसात के दिनों में फ़र्श में से सफ़ेद रुई जैसा कुछ निकलने लगता है, कभी कभी ज़्यादा बरसात में फ़र्श में से पानी भी आने लगता है। जहाँ फ़र्श मार्बल का हो वहाँ ये सीलन दीवारों में चली जाती है। बर्मिंघम में इसका इलाज है लेंटर, जो लेंटर हम छत पर डालते हैं उसी तरीके से वो फ़र्श बनाते हैं। मुझे आर्किटेक्चर के बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं है मगर इतना ज़रुर जानती हूँ वो तरीक़ा है बड़ा यूनिक, उससे न तो फ़र्श ठण्डा रहता है न ही ज़मीन से सीलन आती है। फर्श में पहले कॉन्क्रीट डाला जाता है, उसके बाद लोहे का जाल फिर कॉन्क्रीट और फ़ोम शीट के इस्तेमाल से एक नार्मल फर्श बनाया जाता है और ऊपर से कारपेट डाल दिया जाता है बस...... और सुना है कि वहाँ के मकान काफ़ी मज़बूत होते हैं, उन्हें बार-बार मरम्मत की ज़रुरत नहीं पड़ती। 

दिल्ली की पुराने ज़माने की बड़ी-बड़ी हवेलियों या स्मारकों को देखकर बहुत दफ़ा ये ख़याल आता है कि आख़िर उस ज़माने में जब न इतनी सहूलियतें थीं न ही मशीनरी और न ही तकनीक इतनी उन्नत थी तो कैसे उन लोगों ने इतनी ऊंची और मज़बूत इमारतें बनाई होंगी। और दिल्ली ही क्यों आप पूरे देश में देख लें......  क्या हवा महल जैसी मिसाल दुनिया में कहीं मिलेगी ? जो राजस्थान की तपती गर्मी में बिना पंखे और AC के ठंडक पहुंचाती है !!  इसी तरह दिल्ली की हवेलियों की बनावट है, वहाँ गर्मी में ठंडक रहती है और सर्दियों में हवेलियों के अंदर बाहर की शीत लहर का एहसास भी नहीं होता। उनकी बनावट ऐसी है जो सिर्फ़ ठंडी हवाओं से ही नहीं बचाती बल्कि बाहर के शोर से भी बचाती हैं। यानी Noise Pollution जिसकी समस्या दिल्ली में दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और जिसे हम में से कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा। और एक चीज़ से बचाती हैं चोरी-चकारी से, आपने शायद ही कभी सुना हो कि पुरानी दिल्ली में चोरों ने किसी घर में सेंध लगाई हो क्योंकि वहाँ से चोरी करके भागना ही आसान नहीं है। हर गली किसी दूसरी गली में खुलती है और वो दूसरी गली किसी तीसरी में और अनजान इंसान उन गलियों में सिर्फ़ गोल-गोल घूमता रह जाएगा, वहाँ से बाहर नहीं निकल पाएगा। 

Thursday, November 25, 2021

बदलता ट्रेड फेयर (IITF-2021)


बहुत समय के बाद "अपने लिए" कहीं बाहर जाने का मौक़ा मिला तो सोचा इस मौके को गंवाया न जाए इसलिए अपनी दोस्त के साथ चल दिए "इंडिया इंटरनेशनल ट्रेड फेयर" की सैर को। कोरोना की वजह से वैसे भी पिछले ही साल से ऐसा कोई बड़ा इवेंट दिल्ली में नहीं हो रहा था, फिर प्रगति मैदान में बनी नई ईमारत भी देखनी थी। बहुत क्रेज़ तो नहीं था मगर जब घर से निकल पड़े तो मंज़िल पर पहुंचना ही था। पर सच कहूँ तो ऐसा लगा नहीं कि मैं ट्रेड फेयर देखने आई हूँ। कोरोना से पहले कुछ सालों से ही प्रगति मैदान में लगने वाले मेलों का दायरा थोड़ा कम हो गया था क्योंकि एक नई ईमारत बन रही थी, तो इस बार भी कुछ ख़ास नया नहीं लगा। 

जो लोग दिल्ली या उसके आस-पास पले-बढ़े हैं उन्हें याद होगा कि कैसे ट्रेड फेयर का इंतज़ार किसी त्यौहार की तरह किया जाता था। स्कूल-कॉलेज से निकलते ही स्टूडेंट्स प्रगति मैदान का रुख़ कर लेते थे (जो भूल गए हैं उन्हें याद दिला दूँ कि पहले ट्रेड फेयर आम जनता के लिए दोपहर 2 बजे से खुलता था उससे पहले सिर्फ़ बिज़नेस क्लास ही जा सकती थी ) जॉब करने वाले या तो हाफ डे की छुट्टी लेते थे या फिर शनिवार-रविवार का इंतज़ार करते थे। और वीकेंड के इन दो दिनों में वहाँ पैर रखने की जगह नहीं होती थी। टिकट के लिए भी एक लम्बी लाइन लगती थी और प्रवेश करते हुए भी, इसीलिए लोग एंट्री-पास का इंतज़ाम करने की कोशिश करते थे। 

आस-पास के राज्यों से भी लोग अक्सर इन्हीं दो दिनों में यहाँ आते थे। आदमी पर आदमी चढ़ा हो, इतनी भीड़ होती थी। इसके बावजूद पहले से प्लानिंग की जाती थी कि कौन-कौन से पवेलियंस देखे जाने चाहिए। अलग-अलग राज्यों के पवेलियन्स की पारम्परिक साज-सज्जा सभी को लुभाती थी और दिल चाहता था कि सभी को देख लिया जाए।लेकिन एक दिन में तो पूरा ट्रेड फेयर देख पाना नामुमकिन था, इसलिए प्लान करके जाते थे और अगर दोबारा जाने का मौक़ा मिले तो लोग दोबारा भी जाते थे। बहुत से लोग घर से खाना बनाकर ले जाते और एक तरह से वहाँ पिकनिक मनाई जाती। बाद में ये डिस्कशन भी किया जाता कि कौन सा पवेलियन सबसे ख़ूबसूरत था, किसमें सामान सस्ता मिल रहा था, कहाँ का खाना टेस्टी था वगैरह-वग़ैरह। जो लोग पहले ट्रेड फेयर देख आते थे उनसे बाक़ायदा सलाह ली जाती थी कि कौन से गेट से जाना चाहिए, पार्किंग कितनी दूर है, टिकट कहाँ-कहाँ उपलब्ध है।

इसमें कोई शक़ नहीं कि अब सुविधाएँ तो बढ़ी हैं, आपको टिकट के लिए लाइन में नहीं लगना पड़ता। मेट्रो के कारण पार्किंग का बोझ और सड़कों पर जाम लगना कम हुआ है मगर साथ ही साथ फेयर का लुत्फ़ भी घट गया है। दो मंज़िला नई ईमारत ख़ूबसूरत है मगर वो एक क़िस्म के मॉल की तरह है। 



इसमें पारम्परिकता की सिर्फ़ झलक है, जैसे पहले इंटरनेशनल पवेलियन हुआ करता था, समझ लीजिए कुछ-कुछ वैसा ही हर फ्लोर पर देखने को मिलता है, सभी स्टेट्स एक छत के नीचे। 

प्रवेश के साथ ही सरस, गुड लिविंग जैसे कुछ पवेलियन्स उसी तरह हैं जैसे पिछले कुछ सालों से हम देखते आ रहे थे। 



पर अब न वो माहौल है न ही ट्रेड फेयर का वो वातावरण न ही पहले जैसी भीड़। काफ़ी लोग जा रहे हैं मगर पुराना excitement मिसिंग है। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा।  

Saturday, January 16, 2021

पुरानी दिल्ली का कटरा नील

पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक में तो पुराना शाहजहाँनाबाद फिर से बनाने की कोशिश की जा रही है। पर मैं सोचती हूँ क्या उससे पुरानी दिल्ली की हालत सचमुच बदल जाएगी ??!! क्या वहाँ के गली, कूँचे, कटरे, हवेलियाँ सब की हालत सुधर जाएगी ??!! मुझे तो ऐसा नहीं लगता.........  आख़िर सत्ता बदल जाने से कभी आम जनता की हालत बदली है ! लेकिन जिस तरह पुरानी दिल्ली की कुछ हवेलियों को रेनोवेट करा के उन्हें पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है, उससे ऐसा ज़रुर लगता है कि एक दिन पुरानी दिल्ली का पूरा इलाक़ा सिर्फ़ दर्शनीय स्थल में बदल कर रह जाएगा और तब बाक़ी दिल्ली वाले उन्हें देखने जाया करेंगे। क्योंकि अभी तो आलम ये है कि वहाँ कोई घटना घट जाए, तो कोई बड़ा अख़बार भी तुरंत उसे कवर नहीं करता, न ही टीवी चैनल्स उसका कोई लाइव टेलीकास्ट करते हैं। हाँलाकि ये काफ़ी हैरत की बात है, पर भला हो सोशल मीडिया का और उन Youtubers का (जो शायद वहीं के रहने वाले होंगे) जिनकी वजह से लोगों तक वहॉं की ख़बर पहुँच जाती है। 

जिस दिन चाँदनी चौक के बीचों-बीच बना हनुमान मंदिर गिराया गया उसी के अगले दिन चांदनी चौक के कटरा नील में दर्जनों दुकानें जल गईं पर मैंने न तो किसी अख़बार में वो ख़बर पढ़ी, न ही टीवी पर वो न्यूज़ दिखाई गई। शायद इस तरह की ख़बरों से किसी को कोई फ़ायदा नहीं मिलता ! क्योंकि ये ख़बरें TRP नहीं बढ़ातीं।  

कटरा नील  जिसे वहाँ के आम लोग नील का कटरा कहते हैं, आज वहाँ लेडीज सूट और कुर्तियों की होलसेल मार्किट है। लेकिन एक ज़माने में वहाँ नील बनाया और बेचा जाता था इसीलिए इस का नाम पड़ा नील का कटरा। वहाँ की गली घंटेश्वर में प्राचीन घंटेश्वर मंदिर है जो वहाँ काफ़ी मशहूर है। एक ज़माने में यमुना नदी इसके आस-पास बहती थी तो वहाँ एक गली धोबियान भी हुआ करती थी, जहाँ धोबी रहा करते थे। इसी के पीछे है बाग़ दीवार, और सब्ज़ी मंडी के साथ-साथ खोया मंडी भी है। पहले तो दिल्ली के ज़्यादातर मिठाई वाले सुबह-सुबह यहीं से खोया ले जाते थे। अब तो दिल्ली में ज़्यादातर लोग मिठाई से परहेज़ रखते हैं, कुछ डाइबिटीज़ की वजह से तो कुछ डाइटिंग के कारण, खाते भी हैं तो ब्रांडेड शुगर-फ़्री वाली मिठाई। लेकिन सच कहूँ तो, वो जो पहले असली खोए को घर लाकर भूना जाता था, फिर उससे तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाई जाती थीं उनकी महक और स्वाद की बात ही कुछ और थी।