पिछले कई महीनों से जो पेंच फँसा हुआ था उसका एक सिरा कल निकल ही गया। भाई दूज यानी 29 अक्टूबर 2019 से दिल्ली में महिलाओं को DTC और क्लस्टर बसों में मुफ़्त सफ़र का तोहफ़ा मिल ही गया। और कहा जा रहा है कि जल्दी ही बुज़ुर्गों और विद्यार्थियों को भी इस तरह का तोहफा दिया जा सकता है।
पर क्या सचमुच ये एक तोहफ़ा है !!!???
क़रीब 1 करोड़ की आबादी वाली दिल्ली में क़रीब 31 लाख लोग रोज़ाना डी टी सी और क्लस्टर बसों में सफ़र करते हैं जिनमें लगभग 30 प्रतिशत महिलाएं हैं, और ज़ाहिर है कि वो इस क़दम से ख़ुश होंगी ही। आख़िर फ़्री में कुछ मिले तो किसे बुरा लगता है। ये छूट यूँ तो सभी महिलाओं को दी जा रही है पर महिला यात्रियों की गिनती के लिए गुलाबी टिकट जारी किया जा रहा है ताकि दिल्ली सरकार उतने पैसे का भुगतान डी टी सी को कर सके।उस टिकट के पीछे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की फोटो के साथ एक सन्देश भी है। लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं जिन पर हमें सोचना चाहिए।
इस योजना को पूरी तरह लागू करने में जो 140 करोड़ रुपए का ख़र्च आ रहा है उसका बोझ किस पर पड़ेगा ????
अभी तो इस ख़र्च का वहन दिल्ली सरकार कर रही है पर भविष्य में इसका बोझ आम आदमी की जेब पर नहीं पड़ेगा इसकी क्या गारंटी है !!!
ये एक अच्छा क़दम हो सकता है, मगर इस चुनावी सीज़न में इस योजना के लागू होने पर और टिकट पर मुख्यमंत्री की फ़ोटो और सन्देश देख कर ये एक चुनावी स्टंट ज़्यादा लगता है।
यहाँ सवाल ये भी उठता है कि आख़िर हमें हर चीज़ फ़्री क्यों चाहिए ?
क्या हम भिखारी हैं, नाकारा हैं, किसी लायक़ नहीं हैं !!! अगर हम काम करते हैं तो अपना ख़र्च भी उठा सकते हैं, फिर फ़्री क्यों ? शायद ऐसा करके सरकारें हमारा ध्यान बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी जैसी मूल समस्याओं से हटाना चाहती हैं। सरकार ही क्यों पूरा बाज़ार अपने उपभोक्ताओं के दिमाग़ से खेल रहा है और हमें एहसास भी नहीं है। आजकल आप देखिये आये दिन चीज़ों पर छूट और ऑफर्स दिए जा रहे हैं खासतौर पर ऑनलाइन शॉपिंग या लेन-देन पर। त्यौहार आने को हों या सीजन बदल रहा हो, हर तरफ़ छूट ही छूट !!! या सेल सेल सेल !!! के पोस्टर्स और विज्ञापन नज़र आने लगते हैं। 30% 50% 70% ऑफ़ कहीं कहीं तो 100% कैशबैक का वादा भी किया जाता है। इन ऑफर्स का बाक़ायदा लोग इंतज़ार करते हैं। लेकिन कभी सोचा है कि कंपनियों को इससे क्या फ़ायदा होता है? ऐसा तो बिलकुल नहीं है कि उन्हें कोई फ़ायदा नहीं होता होगा, क्योंकि बिना लाभ के तो बिज़नेस नहीं चल सकता। तो क्या हम सचमुच फ़ायदे में रहते हैं या ये सिर्फ़ उस इंसानी फ़ितरत का फ़ायदा उठाने की ऐसी तरक़ीब है जिसमें लुटने वाला लूटने का सुख महसूस करे और ज़्यादा से ज़्यादा ख़रीदारी करे, चाहे उसे उन चीज़ों की ज़रुरत हो या न हो।
अगर हम ख़र्च कर सकते हैं तो फ़्री क्यों ? हमारी इस फ़्री पाने की प्रवृत्ति का फायदा सभी उठाते हैं कम्पनियों से लेकर राजनेता तक। तभी तो चुनावों में बिजली-पानी फ्री करने, बसों और मेट्रो में मुफ़्त सफ़र का लालच दिया जाता है और हम भी उस लालच में आ जाते हैं। बग़ैर ये सोचे-समझे कि इस दुनिया में कुछ भी फ़्री नहीं मिलता, हर चीज़ की एक क़ीमत होती है। भले भी हम सीधे-सीधे उस क़ीमत को अदा नहीं कर रहे हैं पर इनडायरेक्टली हम शायद उससे चौगुनी क़ीमत दे रहे हैं। कभी टैक्स के रुप में, कभी ज़रुरत से ज़्यादा या बिना ज़रुरत के ख़रीदारी कर के (उन चीज़ों पर भी हम टैक्स देते हैं)।
मेरे ज़हन में कभी-कभी ये सवाल आता है कि बाँटकर खाने वाले, दान देने में विश्वास रखने वाले देश के लोग क्यों, कब, कैसे हाथ फैलाने में, लालच में यक़ीन रखने लगे !!! साथ ही ये ख़याल भी आता है कि जितना ये सरकारें मुफ़्त सहूलियतें देने में वक़्त और पैसा लगाती हैं उतना अगर रोज़गार देने में, बढ़े हुए टैक्स का बोझ कम करने में, और बढ़ती हुई महँगाई को क़ाबू करने में लगातीं तो शायद लोग सस्ते के चक्कर में चीनी उत्पाद ख़रीद कर अपने देश का पैसा बाहर न भेजते और न ही किसी चीज़ के मुफ़्त पाने की लालसा रखते।
मुफ़्त पाना, कम से कम ख़र्च में थोड़ा ज़्यादा पाना किसी को बुरा नहीं लगता। मगर इस तरह के लालच की आदत हमें किस दिशा में ले जा रही है, इस पर गहन सोच-विचार की आवश्यकता है।
पर क्या सचमुच ये एक तोहफ़ा है !!!???
क़रीब 1 करोड़ की आबादी वाली दिल्ली में क़रीब 31 लाख लोग रोज़ाना डी टी सी और क्लस्टर बसों में सफ़र करते हैं जिनमें लगभग 30 प्रतिशत महिलाएं हैं, और ज़ाहिर है कि वो इस क़दम से ख़ुश होंगी ही। आख़िर फ़्री में कुछ मिले तो किसे बुरा लगता है। ये छूट यूँ तो सभी महिलाओं को दी जा रही है पर महिला यात्रियों की गिनती के लिए गुलाबी टिकट जारी किया जा रहा है ताकि दिल्ली सरकार उतने पैसे का भुगतान डी टी सी को कर सके।उस टिकट के पीछे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की फोटो के साथ एक सन्देश भी है। लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं जिन पर हमें सोचना चाहिए।
इस योजना को पूरी तरह लागू करने में जो 140 करोड़ रुपए का ख़र्च आ रहा है उसका बोझ किस पर पड़ेगा ????
अभी तो इस ख़र्च का वहन दिल्ली सरकार कर रही है पर भविष्य में इसका बोझ आम आदमी की जेब पर नहीं पड़ेगा इसकी क्या गारंटी है !!!
ये एक अच्छा क़दम हो सकता है, मगर इस चुनावी सीज़न में इस योजना के लागू होने पर और टिकट पर मुख्यमंत्री की फ़ोटो और सन्देश देख कर ये एक चुनावी स्टंट ज़्यादा लगता है।
यहाँ सवाल ये भी उठता है कि आख़िर हमें हर चीज़ फ़्री क्यों चाहिए ?
क्या हम भिखारी हैं, नाकारा हैं, किसी लायक़ नहीं हैं !!! अगर हम काम करते हैं तो अपना ख़र्च भी उठा सकते हैं, फिर फ़्री क्यों ? शायद ऐसा करके सरकारें हमारा ध्यान बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी जैसी मूल समस्याओं से हटाना चाहती हैं। सरकार ही क्यों पूरा बाज़ार अपने उपभोक्ताओं के दिमाग़ से खेल रहा है और हमें एहसास भी नहीं है। आजकल आप देखिये आये दिन चीज़ों पर छूट और ऑफर्स दिए जा रहे हैं खासतौर पर ऑनलाइन शॉपिंग या लेन-देन पर। त्यौहार आने को हों या सीजन बदल रहा हो, हर तरफ़ छूट ही छूट !!! या सेल सेल सेल !!! के पोस्टर्स और विज्ञापन नज़र आने लगते हैं। 30% 50% 70% ऑफ़ कहीं कहीं तो 100% कैशबैक का वादा भी किया जाता है। इन ऑफर्स का बाक़ायदा लोग इंतज़ार करते हैं। लेकिन कभी सोचा है कि कंपनियों को इससे क्या फ़ायदा होता है? ऐसा तो बिलकुल नहीं है कि उन्हें कोई फ़ायदा नहीं होता होगा, क्योंकि बिना लाभ के तो बिज़नेस नहीं चल सकता। तो क्या हम सचमुच फ़ायदे में रहते हैं या ये सिर्फ़ उस इंसानी फ़ितरत का फ़ायदा उठाने की ऐसी तरक़ीब है जिसमें लुटने वाला लूटने का सुख महसूस करे और ज़्यादा से ज़्यादा ख़रीदारी करे, चाहे उसे उन चीज़ों की ज़रुरत हो या न हो।
मेरे ज़हन में कभी-कभी ये सवाल आता है कि बाँटकर खाने वाले, दान देने में विश्वास रखने वाले देश के लोग क्यों, कब, कैसे हाथ फैलाने में, लालच में यक़ीन रखने लगे !!! साथ ही ये ख़याल भी आता है कि जितना ये सरकारें मुफ़्त सहूलियतें देने में वक़्त और पैसा लगाती हैं उतना अगर रोज़गार देने में, बढ़े हुए टैक्स का बोझ कम करने में, और बढ़ती हुई महँगाई को क़ाबू करने में लगातीं तो शायद लोग सस्ते के चक्कर में चीनी उत्पाद ख़रीद कर अपने देश का पैसा बाहर न भेजते और न ही किसी चीज़ के मुफ़्त पाने की लालसा रखते।
मुफ़्त पाना, कम से कम ख़र्च में थोड़ा ज़्यादा पाना किसी को बुरा नहीं लगता। मगर इस तरह के लालच की आदत हमें किस दिशा में ले जा रही है, इस पर गहन सोच-विचार की आवश्यकता है।