Saturday, September 14, 2019

किताबें कुछ कहती हैं



किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से 
बड़ी हसरत से तकती हैं 
महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं 
-गुलज़ार-
रोज़मर्रा के व्यस्त जीवन में शायद अलमारी के बंद दरवाज़ों को खोलने की फ़ुरसत न मिले, पर समय-समय पर लगने वाले पुस्तक मेले किताबों से मुलाक़ात का एक मौक़ा ज़रुर दे देते हैं। और वहाँ उमड़ी भीड़ को देखकर महसूस ही नहीं होता कि किताबों से जो नाता क़ायम है वो सिर्फ़ देखने-दिखाने तक सीमित है।


11 सितम्बर से एक बार फिर दिल्ली में पुस्तक मेले का आयोजन हुआ, फिर से लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। कुछ लोग ऐसे भी रहे जिन्हें इसके बारे में कुछ पता नहीं था, पर जिन्हें पता था वो मौक़ा मिलते ही बुक फेयर चले गए और उन्होंने किताबों पर मिलने वाली छूट का जमकर लाभ भी उठाया। "100 रुपए के 3 उपन्यास या किताब" वाली छूट अमूमन अँग्रेज़ी की किताबों पर होती है और ख़रीदने वालों में ऐसे लोगों की सँख्या भी कम नहीं होती जो न तो लेखक के विषय में बहुत ज़्यादा जानते हैं न उस किताब के विषय में, लेकिन छूट का लाभ उठाने के लिए बुक कवर देख कर या किताब के नाम पर सरसरी सी नज़र डाल कर randomly किताबें चुन लेते हैं। अब इनमें से कितनी किताबें वो पढ़ पाते हैं ये कहना ज़रा मुश्किल है।


हाँलाकि इस दफ़ा हिंदी की किताबों के स्टॉल्स भी काफ़ी हैं। NCERT, NBT, साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी, संस्कृत अकादमी के अलावा बहुत से प्रकाशकों ने इस पुस्तक मेले में भाग लिया। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग की प्रदर्शनी एकदम अलग पवेलियन में है। यहाँ महात्मा गाँधी पर तो अनेक पुस्तकें हैं ही, साथ ही भारत, भारतीय शहर, कला और साहित्य से जुड़ी अनेक महत्वपूर्ण किताबें यहाँ देखने को मिलीं। गुणवत्ता की दृष्टि से मुझे ये पवेलियन सबसे बेहतर लगा।


इस बार का पुस्तक मेला सिर्फ़ हॉल नंबर 7 तक सिमटा हुआ है, उसी में स्टेशनरी फेयर भी लगा है। और सच कहूँ तो किताबों से ज़्यादा भीड़ स्टेशनरी के स्टॉल्स पर नज़र आती है, खासतौर पर अगर आप के साथ छोटे बच्चे हैं तो रंग-बिरंगे पेन, पाउचेस, स्टिकर्स, अलग अलग तरह के रंग, रबर, पेंसिल्स और गिफ़्ट पैक्स सब बच्चे तो बच्चे बड़ों को भी मोह लेते हैं। इसके अलावा यहाँ सोना बेल्ट, स्ट्रेटटनिंग हेयर ब्रश, ट्रैवलिंग आयरन, खट्टी मीठी गोलियाँ, चूर्ण, शेंडेलेयर्स, ब्रास बोतलें भी बिकती नज़र आईं। हाँलाकि बुक फेयर में इन सबके होने की वजह मुझे आज तक कभी समझ नहीं आई।

ख़ैर ! बहुत सी ऐसी बातें हैं जो शायद आपको भी कभी समझ नहीं आती होंगी जैसे मुझे ये समझ नहीं आता कि हिंदी के ज़्यादातर प्रकाशक अपने स्टॉल्स को थोड़ा आकर्षक क्यों नहीं बनाते ? अपने प्रचार पर ज़ोर क्यों नहीं देते ? फिर उनकी ये शिकायत रहती है कि आजकल लोग हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते। आज के प्रतियोगिता के युग में अगर ख़ुद को एक दमदार स्थिति में बनाए रखना है, अपनी एक मज़बूत जगह बनानी है, अपना साहित्य लोगों तक पहुँचाना है, तो उसका प्रचार-प्रसार तो करना पड़ेगा वो भी आज के ज़माने के हिसाब से।

मुझे दिल्ली पुस्तक मेले में जाने का बहुत फ़ायदा हुआ, एक ऐसी किताब जिसे मैं काफ़ी समय से ढूँढ रही थी, आज अचानक मिल गई वो भी बिना ढूँढे, इसलिए मेरा जाना तो सफल रहा। अब इंतज़ार है विश्व पुस्तक मेले का जहाँ दुनिया भर का साहित्य एक साथ एक ही जगह पर उपलब्ध होगा।

3 comments:

  1. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete
    Replies
    1. kripya devnagri ya roman mein likhein taaki main samajh sakun ki kisne kya likha hai.

      shukriya

      Delete
  2. Nicely explained. Hindi aur hindi mein kaam karne walo ko thoda badalne ki zarurat hai.

    ReplyDelete