उग्रसेन की बावली
जब फिल्म रंग दे बसंती आई थी तो हर किसी के मन में ये सवाल उठा था कि वो जगह कौन सी है जहाँ वो सभी दोस्त सीढ़ियों पर बैठ कर मस्ती करते हैं, पानी में डुबकी लगाते हैं। उस जगह के लिए अचानक लोगों के मन में एक जिज्ञासा जाग उठी थी। बहुत से लोगों ने कहा कि वो उग्रसेन की बावली है (हाँलाकि वो नाहरगढ़ का क़िला था ) मगर तब उग्रसेन की बावली का नाम बहुत ज़्यादा चर्चा में आ गया था। उस वक़्त मैंने तय कर लिया था कि जाकर ज़रुर देखूंगी मगर फ़िल्म रिलीज़ हुए सालों गुज़र गए लोग शायद उस फ़िल्म का नाम भी भूल गए और उसके बाद झूम बराबर झूम, पी के, सुल्तान, शुभ मंगल सावधान जैसी फ़िल्मों में उग्रसेन / अग्रसेन की बावली दिखाई गई पर मैं उस बावली को देखने नहीं जा पाई, सालों बाद अब जाकर ये मौक़ा मिला।
दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस से थोड़ा पहले कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर दीवानचंद के पास एक छोटी सी गली में है - उग्रसेन की बावली। उस जगह से मैं कई दफ़ा गुज़री हूँ मगर पता ही नहीं था कि वहाँ किसी गली में वो जगह है जहाँ मैं बरसों से जाना चाहती थी। दिल्ली के कोने-कोने में ऐसी अनोखी विरासतें हैं और हम जैसे लोग अक्सर वहां से गुज़रते भी हैं मगर जान ही नहीं पाते कि वहीं पास में कहीं कोई खंडहर या पुरानी भूली-बिसरी ईमारत भी है।
मुख्य प्रवेश द्वार |
जब उस गली में मुड़ते हैं तो दीवारों पर बहुत ही ख़ूबसूरत चित्र (ग्रेफिटी ) देखने को मिलते हैं जहाँ आप फ़ोटो भी ले सकते हैं। सीधे हाथ की तरफ़ एक गेट है उस में एंटर करने से पहले ही पुराने ज़माने के पत्थरों का फ़र्श दिखाई दे जाता है और एक पुराना पेड़। सीधे हाथ की तरफ़ दो लाल पत्थरों की शिलाओं पर बावली से जुड़ी जानकारी उकेरी गई है। वहीं हैं चंद सीढ़ियाँ और जैसे ही सीढ़ियाँ चढ़ना ख़त्म होता है तो बाएँ हाथ पर नीचे उतरने के लिए बहुत सी सीढ़ियां इंतज़ार करती दिखाई देती हैं, बस यही है बावली। सीढ़ियों के दोनों तरफ़ मोटी दीवारों में बड़े-बड़े आले बने हुए हैं, कुछ ऐसे हैं जिसमें दो लोग आराम से खड़े हो सकते हैं, कुछ बहुत संकरे। ध्यान से देखें तो अंदर कहीं-कहीं लोहे की सलाखों वाले दरवाज़े दिखाई देते हैं। मगर ये पता नहीं चल पाया कि उनका इस्तेमाल किसलिए होता रहा होगा। क्योंकि वहाँ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो उस बावली के बारे में कोई सटीक जानकारी दे सके। बावली में पानी भी बहुत थोड़ा था, गंदला भी था तो काला दिखाई दे रहा था या हो सकता है काला ही हो। कोई 40-50 सीढ़ियाँ उतरने के बाद एक जगह रस्सी से रोक लगा रखी है उससे नीचे जाने की इजाज़त नहीं है।लेकिन जब सीढ़ियों पर बैठकर सामने देखते हैं तो उन सारी ऐतिहासिक फ़िल्मों के दृश्य याद आने लगते हैं जिनमें ऐसी जगहें पुरानी शान-ओ-शौकत के साथ दिखाई जाती हैं। और एक अजीब सा सम्मोहन जाग जाता है, अंदर जाने की इच्छा भी होती है पर हम ठहरे आम लोग हमें परमिशन मिलना आसान कहाँ है ?
वैसे भी इस जगह का नाम दिल्ली के टॉप मोस्ट हॉन्टेड प्लेस में आता है। माना जाता है कि यहाँ भूत-प्रेत-आत्माओं का निवास है। ऐसा कब से और क्यों माना जा रहा है ये किसी को नहीं पता। पर शाम 6 बजे के बाद इसे बंद कर दिया जाता है और किसी को प्रवेश की इजाज़त नहीं दी जाती। ये अफ़वाहें इस बावली को और भी रहस्मयी और रोचक बना देती हैं। वहाँ सीढ़ियों पर बैठे-बैठे उस बावली को ध्यान से देखते हुए नज़रें कहीं बहुत अंदर तक जा रही थी, जितना ज़्यादा साफ़ दिखाई देता जा रहा था उतने ही सवाल ज़हन में उठने लगे थे। मैं इन्हीं सवालों और ख़यालों में खोई थी कि अचानक पंख फड़फड़ाने की आवाज़ से ध्यान टूटा तो देखा आसमान में ढेर सारे कबूतरों ने एक साथ उड़ान भरी और फिर तितर-बितर हो गए और हर थोड़ी-थोड़ी देर बाद ऐसा हो रहा था। दरअसल सीढियों के अगल - बगल जो आले बने हुए हैं उनमें अब कबूतरों ने भी आशियाने बना लिए हैं। एक दीवार में ईंट जितने बड़े गैप में एक कबूतर को छिपकर बैठे देखा तो मैंने सोचा अपने फ़ोन के कैमरा में उसे क़ैद कर लूँ पर मेरे फ़ोन का मेगापिक्सल मेरी आँखों से काफ़ी कम निकला इसलिए पिक्चर में अँधेरे के अलावा कुछ नहीं आया।
उग्रसेन की बावली |
उग्रसेन की बावली जिसे अक्सर लोग अग्रसेन की बावली कहते हैं, Archeological सर्वे ऑफ़ इंडिया द्वारा संरक्षित स्मारक है। पुराने ज़माने में बरसात के पानी को संरक्षित करने के जो बहुत से तरीक़े हुआ करते थे बावली उनमें से एक है, एक तरह का कुँआ जिसमें आप सीढ़ियां उतर कर जा सकते हैं। ये एक संरक्षित ईमारत है शायद इसीलिए दिल्ली की बाक़ी बवालियों से इसकी हालत काफ़ी बेहतर है। वहाँ लगे बोर्ड के अनुसार इसका निर्माण अग्रवाल समुदाय के पूर्वज राजा उग्रसेन ने करवाया था। एक मान्यता ये है कि मुख्यतः ये महाभारत काल में राजा उग्रसेन ने बनवाई थी बाद में इसका पुनर्निर्माण अग्रवाल समाज के राजा उग्रसेन ने कराया। लेकिन इसकी स्थापत्य कला को देखते हुए ये माना जाता है कि ये तुग़लक या लोदी काल में बनी होगी।
जब सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर पहुंचे थे तो दाएँ हाथ की तरफ़ भी एक छोटी सी ईमारत थी, वो क्या थी पता नहीं ! वहां भी जाने की इजाज़त नहीं थी हांलाकि मैंने गार्ड से पूछकर छोटा सा वीडियो तो बना लिया था मगर ये पता नहीं चला कि वो क्या है। बाहर लगे बोर्ड पर मौजूद जानकारी के मुताबिक़ वहाँ एक मस्जिद भी है, तो हो सकता है ये वो ही मस्जिद हो ! जब हम वहाँ पहुंचे थे तो काफी भीड़ थी, कुछ साउथ इंडियन स्टूडेंट्स अपने टीचर के साथ आए हुए थे। दो ट्विन्स बच्चियाँ बहुत एन्जॉय कर रही थीं, कुछ ग्रुप्स थे और ज़ाहिर है कुछ कपल्स भी थे। लेकिन अब जब दोबारा फोटोज़ और वीडियोज़ देख रही हूँ तो लग रहा है जैसे वहाँ कोई और था ही नहीं। क़रीब आधा घंटा वहाँ बैठने के बाद हम वहाँ से निकल तो आए, लेकिन उस जगह से जुड़ी कुछ कहानियाँ दिल में बसी रह गईं।
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