Saturday, December 12, 2020

Seven wonders at one place




अपने सिस्टम पर कुछ ढूंढ रही थी तो अचानक ये पिक्चर्स दिख गईं और याद आया कि ऐसा ही मौसम था जब हमारा पूरा परिवार "वेस्ट टू वंडर" पार्क में गया था बहुत मज़ा आया था। यूँ तो यादें हमेशा दिल में बसी रहती हैं मगर तसवीरें उन बासी हुई यादों को बिलकुल ऐसे ताज़ा कर देती हैं जैसे कल ही की बात हो। क़रीब दो साल पहले अख़बार में पढ़ा था कि दिल्ली में सराय काले ख़ाँ के पास एक ऐसा पार्क बनाया गया है जो वेस्ट मेटीरियल से बना है। वेस्ट मेटीरियल पढ़ कर तो मुझे सबसे पहले चंडीगढ़ का रॉक गार्डन याद आया। फिर पता लगा कि ठीक "वेस्ट टू वंडर" जैसा पार्क राजस्थान के कोटा में भी है, उसी से इंस्पायर होकर दिल्ली में इसे बनाया गया। 

जब मैंने इसके बारे में घर में बताया तो एक दिन मेरी कजिन सिस्टर और हम सब का प्रोग्राम बना कि इस अनोखे पार्क में घूमने जाया जाए। असली अजूबे देखने के लिए तो अलग अलग देशों में जाना पड़ेगा यहाँ तो सब एक साथ दिख जाएंगे, असली न सही रेप्लिकाज़ को देख कर ही संतुष्ट हुआ जाए। तो हम सब भाई बहन बच्चों के साथ पहुँच गए और एंट्री करते ही बच्चे तो बहुत खुश हुए क्योंकि जगह जगह पेड़ों पर लटके हुए बन्दर दिखे तो कहीं पांडा कहीं बेबी टाइगर। सबसे ज़्यादा भीड़ थी उन पानी के झरनों के आस-पास जिन्हें सेल्फ़ी स्पॉट के तौर पर बनाया गया है और ज़ाहिर है वहाँ बच्चे-बड़े सभी मौजूद थे और उतनी भीड़ में सेल्फ़ी लेना तो दूर की बात है खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा था। इसलिए हम वहां से आगे बढे और फिर सिलसिला शुरू हुआ दुनिया के सात अजूबों की प्रतिकृतियों का, एक के बाद एक रीयलिस्टिक अनोखी रेप्लिकाज़। आगरा का ताजमहल, गीज़ा के पिरामिड, पेरिस का एफ़िल टावर, पीसा की झुकी हुई मीनार, रियो डी जनेरियो का क्राइस्ट रीडीमर, रोम का कोलोजियम, और न्यूयॉर्क की स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी। हर अजूबे के पास उसके बारे में विस्तार से बताने वाले सूचना पट्ट भी लगे हैं। 


पूरे पार्क में जगह जगह बेंच बनाये गए हैं ताकि आप थक जाएँ तो वहां बैठ कर थोड़ा सुस्ता लें मगर ऐसा मौक़ा ही नहीं आया, बहुत जल्दी ये सिलसिला ख़त्म हो गया यूँ लगा कि अभी तो आये थे और बस !!! आँखें और भी कुछ देखना चाहती थीं, या हम कुछ ज़्यादा उम्मीद और वक़्त लेकर गए थे, लेकिन आधा घंटा भी नहीं लगा और हमने पूरा पार्क देख लिया। तब तक मेरी कज़िन और उसकी फॅमिली वहाँ नहीं पहुँच पाए थे और वहां अंदर कोई रेस्टोरेंट भी नहीं था जहाँ बैठ कर इंतज़ार करते। आसमान में बादल भी कुछ-कुछ मेहरबान होने लगे थे, और हल्की बारिश ने मूड को और भी फ्रेश कर दिया था लेकिन बच्चों को बीमार नहीं करना था इसलिए बारिश ज़्यादा होती उससे पहले ही हम बाहर निकल गए। उस समय तक थोड़ी-बहुत ही लाइटिंग शुरु हुई थी, लेकिन जब तक मेरी कज़िन वहाँ पहुँची तब तक पूरा पार्क रौशनी से नहा चुका था और उन सोडियम लाइट्स के बीच वो रेप्लिकाज़ एकदम असली लग रही थीं। 




पार्क विजिट करने के बाद मैंने इसके बारे में थोड़ी रिसर्च की और फिर FM गोल्ड के शो "छूमंतर" में इसको कवर भी किया। पता चला कि इस पार्क को बनाने में क़रीब 150 टन कचरे का इस्तेमाल किया गया जिसमें ऑटोमोबाइल कबाढ़, पंखे, छड़ी, लोहे की चादरें, नट-बोल्ट्स, साइकिल, टाइप-राइटर, पुराने बेंच और मोटर साइकिल समेत कई अन्य धातुओं के कचरे को रीसायकल करने के बाद उसका यूज़ यहाँ किया गया पर हैरत की बात ये है कि इतना स्क्रैप यूज़ करने के बावजूद इसे बनाने में क़रीब साढ़े सात करोड़ रूपए का ख़र्च अलग से आया है। पर ये पार्क है पूरी तरह इको फ्रेंडली। यहाँ विंड और सोलर पावर का भी इस्तेमाल किया गया है, जिसके लिए यहाँ सोलर ट्री लगाए गए हैं। कोरोना ख़त्म हो जाए और मौक़ा लगे तो ज़रा घूम आइएगा, फ़ीस बहुत ज़्यादा नहीं है, सुबह 11 बजे से रात 11 बजे तक कभी भी जा सकते हैं। और मुझे लगता है जाएंगे तो ख़ुश होकर ही वापस आएँगे।


 

No comments:

Post a Comment