बहुत समय के बाद "अपने लिए" कहीं बाहर जाने का मौक़ा मिला तो सोचा इस मौके को गंवाया न जाए इसलिए अपनी दोस्त के साथ चल दिए "इंडिया इंटरनेशनल ट्रेड फेयर" की सैर को। कोरोना की वजह से वैसे भी पिछले ही साल से ऐसा कोई बड़ा इवेंट दिल्ली में नहीं हो रहा था, फिर प्रगति मैदान में बनी नई ईमारत भी देखनी थी। बहुत क्रेज़ तो नहीं था मगर जब घर से निकल पड़े तो मंज़िल पर पहुंचना ही था। पर सच कहूँ तो ऐसा लगा नहीं कि मैं ट्रेड फेयर देखने आई हूँ। कोरोना से पहले कुछ सालों से ही प्रगति मैदान में लगने वाले मेलों का दायरा थोड़ा कम हो गया था क्योंकि एक नई ईमारत बन रही थी, तो इस बार भी कुछ ख़ास नया नहीं लगा।
जो लोग दिल्ली या उसके आस-पास पले-बढ़े हैं उन्हें याद होगा कि कैसे ट्रेड फेयर का इंतज़ार किसी त्यौहार की तरह किया जाता था। स्कूल-कॉलेज से निकलते ही स्टूडेंट्स प्रगति मैदान का रुख़ कर लेते थे (जो भूल गए हैं उन्हें याद दिला दूँ कि पहले ट्रेड फेयर आम जनता के लिए दोपहर 2 बजे से खुलता था उससे पहले सिर्फ़ बिज़नेस क्लास ही जा सकती थी ) जॉब करने वाले या तो हाफ डे की छुट्टी लेते थे या फिर शनिवार-रविवार का इंतज़ार करते थे। और वीकेंड के इन दो दिनों में वहाँ पैर रखने की जगह नहीं होती थी। टिकट के लिए भी एक लम्बी लाइन लगती थी और प्रवेश करते हुए भी, इसीलिए लोग एंट्री-पास का इंतज़ाम करने की कोशिश करते थे।
आस-पास के राज्यों से भी लोग अक्सर इन्हीं दो दिनों में यहाँ आते थे। आदमी पर आदमी चढ़ा हो, इतनी भीड़ होती थी। इसके बावजूद पहले से प्लानिंग की जाती थी कि कौन-कौन से पवेलियंस देखे जाने चाहिए। अलग-अलग राज्यों के पवेलियन्स की पारम्परिक साज-सज्जा सभी को लुभाती थी और दिल चाहता था कि सभी को देख लिया जाए।लेकिन एक दिन में तो पूरा ट्रेड फेयर देख पाना नामुमकिन था, इसलिए प्लान करके जाते थे और अगर दोबारा जाने का मौक़ा मिले तो लोग दोबारा भी जाते थे। बहुत से लोग घर से खाना बनाकर ले जाते और एक तरह से वहाँ पिकनिक मनाई जाती। बाद में ये डिस्कशन भी किया जाता कि कौन सा पवेलियन सबसे ख़ूबसूरत था, किसमें सामान सस्ता मिल रहा था, कहाँ का खाना टेस्टी था वगैरह-वग़ैरह। जो लोग पहले ट्रेड फेयर देख आते थे उनसे बाक़ायदा सलाह ली जाती थी कि कौन से गेट से जाना चाहिए, पार्किंग कितनी दूर है, टिकट कहाँ-कहाँ उपलब्ध है।
इसमें कोई शक़ नहीं कि अब सुविधाएँ तो बढ़ी हैं, आपको टिकट के लिए लाइन में नहीं लगना पड़ता। मेट्रो के कारण पार्किंग का बोझ और सड़कों पर जाम लगना कम हुआ है मगर साथ ही साथ फेयर का लुत्फ़ भी घट गया है। दो मंज़िला नई ईमारत ख़ूबसूरत है मगर वो एक क़िस्म के मॉल की तरह है।
इसमें पारम्परिकता की सिर्फ़ झलक है, जैसे पहले इंटरनेशनल पवेलियन हुआ करता था, समझ लीजिए कुछ-कुछ वैसा ही हर फ्लोर पर देखने को मिलता है, सभी स्टेट्स एक छत के नीचे।
प्रवेश के साथ ही सरस, गुड लिविंग जैसे कुछ पवेलियन्स उसी तरह हैं जैसे पिछले कुछ सालों से हम देखते आ रहे थे।
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