जब हम दिल से कुछ करते हैं, पूरी तरह डूब कर करते हैं तो चेहरे की रंगत ही अलग होती है, चेहरे से एक अलग ही तरह की आभा झलकती है। कल ऐसी ही रौनक़, ख़ुशी और चमक दिखी नियाज़ी बंधुओं-शाहिद नियाज़ी-सामी नियाज़ी के चेहरे पर। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वो कोई परफॉरमेंस दे रहे हैं बल्कि यूँ लग रहा था कि सिर्फ़ वो ही नहीं बल्कि उनके साथ मिलकर सब अपने महबूब को, अपने ख़ुदा को अपने-अपने अंदाज़ में याद कर रहे हैं। उन्होंने जिस ख़ूबी से "मन कुंतो मौला" और "छाप तिलक" गाया, वहाँ बैठा हर शख़्स एक अलग ही दुनिया में चला गया था। इसका सबूत थी हर शेर पर पड़ने वाली तालियों की गड़गड़ाहट, हर सुर पर निकलने वाली वाह-वाह और दाद के साथ-साथ वहाँ मौजूद भीड़, जो उस ऑडिटोरियम के बाहर भी दूर-दूर तक नज़र आ रही थी। कुछ बुज़ुर्ग तो इतने खो गए कि ख़ुद को थिरकने से रोक ही नहीं पाए। सच..... ऐसे कलाकार हों तो हर कला को मायने मिल जाते हैं और ऐसे रसिक हों, ऐसी दाद देने वाले हों तो कलाकार की ख़ुशी दुगुनी-चौगुनी हो जाती है।
एक और बात जो कल मैंने महसूस की कि कुछ आवाज़ें स्टेज परफॉरमेंस में कमाल की लगती हैं लेकिन रिकॉर्ड होने पर वो उतनी असरदार नहीं लगतीं। जैसे राधिका चोपड़ा..... कल उन्होंने कमाल कर दिया, ग़ज़ल गायकी में एक से बढ़कर एक वैरायटी दी। हाँलाकि मैं उनकी कोई फैन नहीं हूँ मगर इत्तफ़ाक़न पिछले कुछ हफ़्तों से उनकी गज़लों को सुन रही थी। आमतौर पर ऐसा होता नहीं है कि आप किसी मशहूर ग़ज़ल को उसके असल सिंगर के बजाए किसी दूसरे सिंगर की आवाज़ में पसंद करें मगर एक ग़ज़ल है- "गुलशन की बहारों में" इसे ओरिजनली मुसर्रत नज़ीर ने गाया है लेकिन जब मैंने इसे राधिका चोपड़ा की आवाज़ में सुना तो मुझे अच्छा लगा। कल जश्न-ए-रेख़्ता की बदौलत उन्हें लाइव सुनने का मौक़ा मिला तो उनकी गायकी के कुछ नए पहलू सामने आए। एक बेहतरीन सिंगर तो वो हैं ही लेकिन स्टेज परफॉरमेंस के लिए जो सबसे ज़्यादा ज़रुरी बात है, उसमें भी वो माहिर हैं। वो दर्शकों की नब्ज़ अच्छी तरह पहचानती हैं, उन्हें क्या पसंद आएगा, किस बात पर दाद मिलेगी सब पता है उन्हें। इस मामले में चंदनदास थोड़े पीछे नज़र आए और रज़ा मुराद भी अपनी अदायगी से उतना मुतास्सिर नहीं कर पाए। रज़ा मुराद बहुत बड़ा नाम हैं, उनकी आवाज़ को आज भी बहुत पसंद किया जाता है पर उन्होंने सचमुच निराश किया। उनके पास 4-5 पेज की स्क्रिप्ट थी और वो बस उसे पढ़े जा रहे थे, बिना किसी इन्वॉल्वमेंट के ऐसे में भला देखने-सुनने वाले कैसे इन्वॉल्व होते !! हाँ जो कुछ उन्होंने बिना देखे-बिना पढ़े बोला उस पर लोगों ने जमकर तालियाँ बजाईं।
ये जश्न-ए-रेख़्ता के छठे साल का दूसरा दिन था, हम क़रीब 3 बजे वहाँ पहुंचे तो रजिस्ट्रशन के लिए एक लम्बी लाइन थी। क़रीब आधे घंटे लाइन में खड़े रहने पर, डेमोनेटायज़ेशन के दिन याद आ गए। सिर्फ़ छः साल और इतनी लोकप्रियता, इतनी तरक़्क़ी वाक़ई तारीफ़ करनी पड़ेगी उर्दू के चाहने वालों और रेख़्ता के आयोजकों की जिन्होंने इस भाषाई और सांस्कृतिक उत्सव के स्टेंडर्ड को क़ायम रखते हुए, इसे इतना रचनात्मक और मनोरंजक बनाया। हर बार इस कार्यक्रम की बढ़-चढ़ कर पब्लिसिटी की जाती है, इसीलिए हर बार इस जश्न में शामिल होने वालों की सँख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है और ये कार्यक्रम इतना मक़बूल होता जा रहा है। हिंदी वालों को इनसे कुछ सीखना चाहिए।
Maza aa gaya padh kar.. keep sharing..
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