दिल्ली की सबसे ऊँची ऐतिहासिक मीनार
2019 में जब मैंने ये ब्लॉग बनाया था तो मंशा यही थी कि इस ब्लॉग के ज़रिए मैं भी दिल्ली के कोने-कोने से वाक़िफ़ हो पाऊँगी। जो जगह पहले से देखी हैं उनकी यादें ताज़ा करुँगी और जहाँ पहले कभी नहीं गई वहाँ भी जाऊँगी। पर ऊपर वाले की मर्ज़ी थी कि कोई कहीं न जाए सब बस घर में बंद होकर रह जाएँ। खैर! अब कोरोना का ख़तरा उतना नहीं है तो मेरी दिल्ली-यात्रा फिर से शुरु हो गई है। कलाम मेमोरियल, उग्रसेन की बावली, कोटला फ़िरोज़शाह के बाद हमरा अगला पड़ाव यूँ तो था सुल्तानपुर बर्ड सेंचुरी लेकिन रास्ता भटक जाने और देर होने की वजह से हम पहुँच गए "क़ुतुब मीनार"
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क़ुतुब मीनार |
क़ुतुब मीनार का नाम पहली बार तब सुना था जब एक दिन चित्रहार में एक गाना आया "दिल का भंवर करे पुकार प्यार का राग सुनो" तब पता चला कि ये गाना क़ुतुब मीनार के अंदर फ़िल्माया गया है। उस दिन ये जानकर बहुत एक्ससाइटमेंट हुआ था कि क़ुतुबमीनार दिल्ली में ही है और हम उसे देखने जा सकते हैं। उसके बाद शायद स्कूल वाले पिकनिक पर वहाँ ले गए थे पर उसकी कोई याद बाक़ी नहीं है। उस ज़माने में स्कूल वाले पिकनिक पर कुछ गिनी-चुनी जगहों पर ही तो लेकर जाते थे - चिड़ियाघर, लाल क़िला, क़ुतुब मीनार, पुराना क़िला,जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राजघाट जैसी कुछ पर्टिकुलर जगह हुआ करती थीं या फिर म्यूजियम। पापा ने जब दिल्ली सरकार का एग्जाम पास किया तो उनका पहला स्कूल क़ुतुबमीनार के पास ही था, कई सालों तक वो रोज़ सुबह ग़ाज़ियाबाद से ट्रेन पकड़ कर अपने स्कूल जाया करते थे। आज मेट्रो के ज़माने में भी 2 घंटे लग जाते हैं तब तो और भी ज़्यादा समय लगता होगा। क़ुतुब मीनार की जो आख़िरी याद मुझे आती है वो कॉलेज के बाद की है। मेरी एक दोस्त का एग्जाम था तो मैं और पापा उसके साथ गए थे। एग्जाम के बाद हम तीनों क़ुतुब मीनार चले गए थे घर से खाना पैक करा के ले गए थे वो हमने वहीं खाया था। तब वहाँ खाने-पीने का सामान ले जाने की इजाज़त थी, मगर अब नहीं है। शायद कोरोना की वजह से..... एक तरह से ठीक भी है क्योंकि हमारी आदतें आज भी बदली कहाँ है, जहाँ मौक़ा मिलता है गंदगी फैला देते हैं।
पहले टिकट लगता था या नहीं ये तो मुझे याद नहीं है मगर अब टिकट लगता है और जो टिकट काउंटर है वो मुख्य स्मारक के सामने की तरफ है वहाँ भी कुछ पुराने अवशेष दिख जाते हैं। पहले क़ुतुब में आने-जाने का एक ही रास्ता था,अब एंट्री और एग्जिट अलग-अलग बना दी गई हैं। क़ुतुब में अगर मुझे कुछ बहुत अच्छे से याद है तो वो है - लोहे की लाट जिसका निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कराया था। इस स्तम्भ से सट कर लोग पीठ की तरफ़ से दोनों हाथ मिलाने की कोशिश करते थे ताकि ये जान सकें कि वो क़िस्मतवाले हैं या नहीं। ऐसा विश्वास क्यों और कैसे बना इस बारे में कोई नहीं जानता था मगर सभी एक कोशिश ज़रुर करते थे। मुझे जहाँ तक याद है मेरे हाथ कभी नहीं मिले थे और इस बार अपना भाग्य आज़माने का मौक़ा नहीं मिला क्योंकि शुद्ध लोहे से बनी उस लाट को अब कोई छू भी नहीं सकता। उसके आस-पास जाल लगा दिया गया है। हाँलाकि उस पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में जो कुछ उकेरा गया था वो पूरा तो नहीं पर काफ़ी हद तक अभी भी देखा जा सकता है। उस पर जो कुछ भी उकेरा गया है उसे संस्कृत और इंग्लिश, हिंदी अनुवाद के साथ गलियारे में लगे संगमरमर के पत्थरों पर साफ़ तौर पर पढ़ा जा सकता है।
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लौह स्तम्भ |
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स्तम्भ पर उल्लिखित जानकारी का अनुवाद |
क्या सचमुच क़ुतुब मीनार झुक रही है ?
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क़ुतुब मीनार के झुकाव को जाँचने का यंत्र |
पीसा की झुकती मीनार के बारे में तो हम सब ने सुना है लेकिन उस दिन ये जानकर बड़ा अचरज हुआ कि क़ुतुब मीनार भी लगातार एक दिशा में झुकती जा रही है। क्या सचमुच क़ुतुब मीनार झुक रही है ? ये प्रश्न कुछ साल पहले संसद में भी उठ चुका है। ए एस आई द्वारा 2005 में एक सर्वेक्षण कराया गया था, जिसमें ये बात सामने आई थी कि 1984 से 2005 के बीच क़ुतुब मीनार दक्षिण-पश्चिम की दिशा में झुकी है, हाँलाकि उसके झुकने की रफ़्तार बहुत ही धीमी है। किसी सरकारी विभाग की तरफ़ से वहाँ कुछ लोग मौजूद थे जो कुछ इंस्ट्रूमेंट्स के माध्यम से क़ुतुब मीनार के झुकाव पर नज़र रख रहे थे, लेकिन हमारी नज़र थी वहाँ की ख़ूबसूरती पर।
क़ुतुब मीनार
मुझे तो कभी क़ुतुब मीनार में ऊपर जाने का मौक़ा नहीं मिला पर मेरी मम्मी बताती हैं कि उनके वक़्त में तीन मंज़िल तक चढ़ने की इजाज़त थी। वैसे इस मीनार में 379 सीढ़ियाँ हैं, लेकिन अब चढ़ना तो दूर मीनार को छूना भी मुश्किल है, क्योंकि उसके चारों तरफ़ भी ग्रिल लगा दी गई है। पर उसकी कारीगरी देख कर सचमुच बहुत हैरत होती है। सोचती हूँ कुतुबुद्दीन ऐबक ने उस समय दुनिया की किस ईमारत से प्रेरणा लेकर इस मीनार की कल्पना की होगी ! और जब उसकी कल्पना को इल्तुतमिश अमली जामा पहना रहा था तो ज़ाहिर है उसे पूरा होते हुए देखना भी ज़रुर चाहता होगा ! शायद इसीलिए उसकी अधूरी ख़्वाहिश के साथ उसका मक़बरा यहीं बना दिया गया हो ! जहाँ ये मक़बरा है वो जगह भी बेहद ख़ूबसूरत है, सफ़ेद संगमरमर से बना वो मक़बरा बहुत बड़ा है और उसके चारों तरफ़ की दीवारों पर भी ख़ूबसूरत नक्काशी की गई है। ये मक़बरा चारों ओर दीवारों से तो घिरा है मगर इसकी छत नहीं है, कहते हैं छत बनाने की कोशिश की गई थी मगर छत टिकी ही नहीं इसलिए ये मक़बरा बिना छत का ही रह गया।
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इल्तुतमिश का मक़बरा |
क़ुतुब मीनार युनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल है और 238 फ़ीट की ऊँचाई के साथ दिल्ली का सबसे ऊंचा ऐतिहासिक स्मारक है। क़ुतुब मीनार परिसर भी काफ़ी बड़ा है जहाँ एंट्री लेते ही मुग़ल बगीचा, मुग़ल मस्जिद और मुग़ल सराय का बोर्ड दीखता है। लेकिन यहाँ का मुग़ल गार्डन बहुत छोटा सा है जिसका एक हिस्सा बस टूटा-फूटा सामान रखने के काम आता है। हां एक बड़ा सा बहुत पुराना बरगद का पेड़ ज़रुर ध्यान खींचता है वर्ना वहाँ जाकर गार्डन वाली फ़ीलिंग नहीं आती है। सराय के कमरों में ताला लगा है बस मस्जिद है जहाँ अभी भी नमाज़ पढ़ी जाती है। पहले जब कभी भी क़ुतुब मीनार गई बस यूँ देखकर इधर उधर बैठ कर वापस आ गई। पहले कभी बहुत बारीक़ी से देखने का मौक़ा नहीं मिला था या कहें तब बारीकियों को जानने में इतनी रुचि नहीं थी। लेकिन इस बार कोना-कोना छान मारा।
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इमाम ज़ामिन का मक़बरा |
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अलाई मीनार |
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क़ुव्वत-उल-इस्लाम-मस्जिद |
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सेन्डर्सन की सूर्य घड़ी |
इमाम ज़ामिन का मक़बरा, अलाई दरवाज़ा, अलाई मीनार, इल्तुतमिश का मक़बरा, क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद, खिलजी का मदरसा, मक़बरा और एक कुएँ के अलावा क़ब्रिस्तान भी। साथ ही गार्डन एरिया में लगी सेंडरसन की सन-क्लॉक और मेजर स्मिथ की छतरी भी, जिसके उखड़े और टूटे हुए पत्थरों को बदला जा रहा था। कुँआ जो पूरा ढका हुआ था क्योंकि उसकी मरम्मत का काम चल रहा था। हाँलाकि वहाँ खड़ा मज़दूर हमारी रिक्वेस्ट पर हमें ऊपर चढ़ कर देखने को मान गया था मगर तभी गार्ड ने आकर उसे भी डांटा और हमें भी।
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क़ुतुब मीनार |
सोच के देखिए कल्पना किसी की, सपना किसी का, कारीगरी किसी और ही की। शुरुआत किसी ने करवाई, आगे बढ़ाया किसी और ने और सपने को साकार किसी और ने किया। सदियों बाद आज देखने वाले वो हैं जिन्होंने इनमें से किसी को नहीं देखा, देखी तो उन की कल्पना, उनकी कारीगरी और इसी तरह सदियों पुरानी और नई पीढ़ियाँ एक दूसरे से जुड़ गईं, है न कमाल की बात !
चलते चलते एक और बात बताना चाहूँगी आपको अगर आप अपनी गाड़ी या कैब से गए हैं तब तो कोई बात नहीं लेकिन अगर आप मेट्रो से वापसी करेंगे तो आपको मेट्रो तक ऑटो लेना पड़ेगा। शेयरिंग ऑटो चलते हैं लेकिन आप अकेले हायर करेंगे तो ऑटो वाला 50 रुपए माँगेगा और कहेगा कि आपको क़ुतुब मीनार की मार्केट भी घुमाएँगे बस आपको दस मिनट वहाँ गुज़ारने होंगे। दरअस्ल वो मार्केट नहीं है बल्कि दिल्ली-हाट का एक छोटा सा एम्पोरियम है जहाँ 10 मिनट गुज़ारना पूरे सफ़र का सबसे मुश्किल काम था। हमने तो बस जिज्ञासा में वो जगह देखने के लिए हाँ कर दी थी, आप न देखना चाहें तो इस बात को ध्यान में रखियेगा।